सरसों परिवार (ब्रेसिकेसी) का एक छोटा सा पौधा है थेल क्रेस (Arabidopsis thaliana)। 20-25 से.मी. लंबे इस पौधे में अधिकतर पत्तियां ज़मीन से सटकर, फूलनुमा आकृति बनाते हुए लगती हैं और बहुत थोड़ी पत्तियां ऊपर तने पर भी लगती हैं। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं। यह पौधा मूलत: युरेशिया और अफ्रीका में पाया जाता है। भारत में यह हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। यह खाली पड़े मैदान, सड़क किनारे, रेललाइन किनारे, खेतों में, कहीं भी उगता देखा जा सकता है, इसलिए इसे खरपतवार की तरह देखा जाता है, हालांकि कुछ जगहों पर इसे खाया भी जाता है।
थेल क्रेस पौधे की कुछ खास बातें हैं। एक तो इसका जीवन चक्र छोटा होता है, अंकुरण से लेकर वापस बीज बनने तक का इसका चक्र 6 हफ्तों में पूरा हो सकता है; यह खरपतवार की तरह आसानी से फल-फूल जाता है; इसका पौधा साइज़ में छोटा तो होता ही है, साथ ही इसका जीनोम भी सरल होता है। अपनी इन सभी खूबियों के कारण 1900 के दशक से ही पादप विज्ञान में थेल क्रेस पर अध्ययन किए जाने लगे थे। फूलदार पौधों की जेनेटिक, आणविक कार्यप्रणाली को समझने में थेल क्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे पहला संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण भी इसी पौधे का किया गया था। और तो और, पादप विज्ञान का यह मॉडल पौधा 2019 में चांग ई-4 लैंडर के साथ चांद की भी सैर कर चुका है।
और अब, इस पौधे के एक अनछुए पहलू का अध्ययन कर पादप विज्ञानी रियुशिरो कासाहारा और उनके दल ने इसकी एक ओर खासियत उजागर की है जो खेती के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है। पता चला है कि (कम से कम) यह पौधा बड़ी चतुराई से अपने सिर्फ उन्हीं बीजांडों तक पोषण पहुंचने देता है जो निषेचित हो चुके होते हैं। और, अपने गैर-निषेचित बीजांड तक पोषण पहुंचने से रोकता है, जिससे पोषण का सदुपयोग होता है और बीज बड़ा बनता है। और, बड़ा बीज यानी पैदावार में वृद्धि।
लेकिन अन्य फसलों में बीज कैसे बड़ा किया जाए? इस पर बात करने के पहले थोड़ा इस पर बात कर लेते हैं कि शोधकर्ताओं को यह बात पता कैसे चली। दरअसल, कासाहारा यह समझना चाह रहे थे कि पौधे बीज कैसे बनाते हैं? इसके लिए कासाहारा ने थेल क्रेस को अध्ययन के लिए चुना और अपना सारा ध्यान इसके फूल के उस स्थान पर केंद्रित किया जहां कई सारी नलिकाओं (फ्लोएम) के माध्यम से पोषक तत्व पहुंचकर विकासशील भ्रूण को पोषण देते हैं।
नीले रंजक का इस्तेमाल कर उन्होंने इस हिस्से में कैलोस का असर देखा। गौरतलब है कि कैलोस पौधों में अस्थायी कोशिका भित्ति बनाकर पौधों के लिए कई काम करता है और पौधों को सुरक्षा प्रदान करता है; जैसे यह पौधों के घावों को भरने में मदद करता है। पता चला कि फ्लोएम के अंतिम छोर पर बीजांड के पास की कोशिकाओं में कैलोस बन रहा था । कैलोस ने फ्लोएम के सिरे के चारों ओर एक तश्तरी जैसा अवरोध (भित्ति) बना दिया था। फिर, अधिकांश निषेचित बीजांडों से वह अवरोध गायब हो गया था, और वहां मात्र एक छल्ला रह गया था – जल्द ही वह छल्ला भी लुप्त हो गया था। लेकिन जो बीजांड निषेचित नहीं हुए थे उनमें अवरोध जस-का-तस बना रहा। इससे समझ आया कि कैलोसयुक्त कोशिकाएं एक दीवार का काम करती हैं, जो फ्लोएम के पोषक तत्वों को गैर-निषेचित बीजांडों में जाने से रोकती हैं(nutrient regulation in fertilized ovules)। इस तरह पौधा गैर-निषेचित बीजांड में अतिरिक्त पोषण ज़ाया करने से बच जाता है।
अब सवाल था कि वह क्या शय है जो निषेचित बीजांड से कैलोस-अवरोध हटा देती है। शोधकर्ताओं की यह तलाश एक ऐसे एंज़ाइम, AtBG_ppap, पर जाकर खत्म हुई जो कैलोस को विघटित करने (या हटाने) की क्षमता रखता है(AtBG_ppap enzyme function)। और इसी एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को अधिक सक्रिय कर कुछ फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सकती है।
इस बात का खुलासा भी थेल क्रेस पर किए गए अध्ययन से हुआ। शोधकर्ताओं ने जब इस पौधे में AtBG_ppap एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को शांत किया तो पाया कि पौधे में सभी बीजांड (निषेचित और गैर-निषेचित) पर कैलोस भित्ति काफी हद तक वैसी की वैसी बनी रही थी। इसके कारण इस जीन के प्रभाव से मुक्त पौधों के बीज सामान्य पौधों के बीज के साइज़ की तुलना में 8 प्रतिशत छोटे बने थे। लेकिन जब टीम ने इन पौधों में AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अति सक्रिय किया तो पाया कि ऐसा करने पर बीज सामान्य पौधों के बीजों की तुलना में 17 प्रतिशत बड़े विकसित हुए। संभवत: इसलिए कि निषेचित बीजांड की कैलोस-भित्ति आसानी से टूट गई होगी और अधिक पोषक तत्व निषेचित बीजांड तक पहुंचे होंगे।
ऐसा ही उन्होंने धान के पौधों पर भी करके देखा तो उन्हें ऐसे ही नतीजे मिले - AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अधिक व्यक्त करवाने पर चावल के दाने की साइज़ 9 प्रतिशत बढ़ गई थी। लेकिन चावल के बड़े दाने होने से शायद इसके स्वाद पर फर्क पड़े, हालांकि स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने जैसी बात तो अध्ययन में सामने नहीं आई है। लेकिन बड़े बीज वाली फसलें सोयाबीन, मक्का और गेहूं जैसी फसलों के लिए फायदेमंद हो सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)