भूविज्ञान की दृष्टि से हम होलोसीन युग में हैं जो पिछले हिमयुग से चला आ रहा है। हर युग के कुछ खास गुण होते हैं और इस युग में हमारे ग्रह पर काफी स्थिर परिस्थितियां बनी रही हैं। शायद यही कारण है कि मनुष्य इतनी सफलता से पृथ्वी पर चारों ओर फैल पाए।
किसी भी प्रजाति या आबादी का अपने पर्यावरण पर कुछ-न-कुछ असर तो होता ही है, लेकिन मनुष्यों के कारण कुछ सदियों से हमारा ग्रह कुछ ज़्यादा ही बदल रहा है। हमारी बढ़ती आबादी, उसके द्वारा संसाधनों का बढ़ता उपयोग और हमारे विभिन्न कार्यों से उत्पन्न प्रदूषण के कारण हम अपने पर्यावरण में कई ऐसे परिवर्तन ला रहे हैं जो हमारे लिए ही नहीं, अन्य जीवों के लिए भी असहनीय साबित हो रहे हैं। इनमें से कई बदलाव ऐसे हैं जिन्हें पलटा नहीं जा सकता और ऐसे में हमारे लिए एक निर्वाह-योग्य जीविका मुश्किल लग रही है।
बदलावों को एकदम से रोकना आसान नहीं है। इसमें काफी मेहनत और धन लगाना होगा और साथ ही अपने व्यवहार, अपनी जीविकाओं को भी बदलना होगा। ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हम कितना बदलाव लाकर भी पृथ्वी को सुरक्षित परिस्थितियों में रख सकते हैं, होलोसीन को जारी रख सकते हैं?

इस सवाल के जवाब में 2009 में 28 वैज्ञानिकों के एक समूह ने 9 प्रक्रियाओं को चिन्हित किया था जो हमारे लिए सूचक बन सकती हैं। ये प्रक्रियाएं हैं - जलवायु परिवर्तन, ज़मीन व समुद्रों में जैव विविधता विनाश की दर, नाइट्रोजन व फॉस्फोरस चक्र में फेरबदल, समतापमंडल में ओज़ोन की कमी, समुद्रों का अम्लीकरण, वैश्विक स्तर पर मीठे पानी का उपयोग, भूमि उपयोग में बदलाव, रासायनिक प्रदूषण और वायुमण्डल में निलंबित कणों की मात्रा।
समूह ने इन प्रक्रियाओं की दहलीज़, यानी वे मात्राएं जिनको पार करना हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकता है, का भी आकलन किया। इन प्रक्रियाओं की दहलीज़ को ग्रह की सीमाएं कहते हैं। ये हमारे लिए एक किस्म के सुरक्षित परिचालन के दायरे हैं जिसमें हम कई पीढ़ियों तक कुशलतापूर्वक रह सकते हैं। और 2009 में ही वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि इनमें से तीन (जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता नाश की दर और नाइट्रोजन चक्र) की दहलीज़ें हम पार कर चुके हैं।

जब ग्रह की सीमाएं प्रस्तावित हुई थीं तो कई लोगों ने उनका स्वागत किया था। शायद यह एक तरीका था यह जानने का कि विकास की अपनी आकांक्षाओं को हम सीमित संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए कैसे सहारा दे सकते हैं। लेकिन कुछ आलोचनाएं भी थीं। इनमें से एक थी कि वैश्विक स्तर के आंकड़ों को हम स्थानीय स्तर पर कैसे समझें। उदाहरण के लिए, वैश्विक स्तर पर जैव-विविधता विनाश की दर या प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर हमें स्थानीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में ज़्यादा कुछ बताती नहीं हैं। कुछ लोगों को एक दिक्कत यह थी कि ये आंकड़े अत्यंत दृढ़ता से पेश किए जा रहे थे - उनकी निश्चयात्मकता पर चर्चा होनी चाहिए। और फिर ज़रूरी नहीं है कि हर प्रक्रिया की कोई दहलीज़ हो। कई प्रक्रियाएं ऐसी भी हो सकती हैं कि हर स्तर पर उनका कुछ-न-कुछ असर होता हो।
इन सब और अन्य कमियों को ध्यान में रखते हुए 2015 में वैज्ञानिकों ने अपने शोध को अपडेट किया और उनके नतीजों में एक महत्वपूर्ण बात यह निकली कि किसी भी जगह पर 10 प्रतिशत से ज़्यादा प्रजातियों को खोना स्थानीय इकोसिस्टम के लिए दिक्कतें पैदा कर सकता है। इसके बाद 2016 में आज तक का सबसे व्यापक विश्लेषण किया गया, जिसमें 39 हज़ार प्रजातियों के 18 करोड़ से भी ज़्यादा रिकॉर्ड्स को शामिल किया गया। इसका निष्कर्ष है कि पृथ्वी की 58 प्रतिशत भूमि से 10 प्रतिशत से ज़्यादा प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। इन प्रजातियों के साथ  इकोसिस्टम में उनकी क्रियात्मक भूमिकाएं खत्म हो सकती हैं। किसी इकोसिस्टम में हरेक प्रजाति कोई न कोई भूमिका निभाती है - जैसे फसलों व जंगली पौधों का परागण, कीटों का सफाया इत्यादि। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसी भी दहलीज़ को पार करने का मतलब यह नहीं है कि तुरंत ही सब कुछ तबाह हो जाएगा लेकिन स्थिति गड़बड़ाने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
ऐसे शोध से हमें सटीक आंकड़े शायद न मिलें, लेकिन मात्र इस वजह से हमें इन नतीजों को नज़रअन्दाज़ कदापि नहीं करना चाहिए। ये वैज्ञानिक चाहते हैं कि सभी देशों के नीति निर्माता इस शोध को तवज्जो दें और गम्भीरता से सोचें कि भूमि और अन्य संसाधनों का कैसे इस्तेमाल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)