वर्ष 2016 का चिकित्सा/शरीर क्रिया विज्ञान का नोबेल पुरस्कार टोक्यो इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के योशिनोरी ओहसुमी को दिया गया है। ओहसुमी ने कोशिकाओं की एक विशेष प्रक्रिया पर अनुसंधान करके उसकी क्रियाविधि का खुलासा किया है।
कोशिकाओं में लगातार चल रही रासायनिक क्रियाओं की वजह से तमाम रसायन बनते रहते हैं, जिनमें से कुछ हानिकारक भी हो सकते हैं। इसके अलावा कोशिकाओं के कई अंग काम करना बंद कर देते हैं। इन रसायनों और बेकार हो चुके अंगों का मलबा कोशिका में इकट्ठा होता रहता यदि कोशिका में एक अंग लायसोसोम न होता। खमीर पर किए गए प्रयोगों से पता चला कि कोशिका में ऐसे सारे पदार्थों को लायसोसोम नामक इस अंग में ले जाया जाता है जहां उन्हें नष्ट किया जाता है या फिर से उपयोग के काबिल बनाया जाता है। इस प्रक्रिया को स्व-भक्षण या ऑटेफेजी कहते हैं।
दरअसल, कोशिका में स्व-भक्षण की प्रक्रिया को समझने में दशको का समय लगा है। सबसे पहले 1950 के दशक में बेल्जियम के वैज्ञानिक क्रिश्चियन डुवे ने कोशिकाओं में लायसोसोम की उपस्थिति का खुलासा किया था। डुवे और उनके साथियों ने यह दर्शाया था कि लायसोसोम नामक इस अंग में ऐसे एंज़ाइम भरे होते हैं, जो मौका मिले तो पूरी कोशिका के सारे अन्य अंगों और प्रोटीन वगैरह को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। इस कार्य के लिए 1974 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

इसके बाद किसी ने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। 1990 के दशक में ओहसुमी ने इस पर आगे अनुसंधान किया। उस समय अधिकांश शोधकर्ता मानते थे कि लायसोसोम विशेष परिस्थितियों में ही काम करता होगा। मगर ओहसुमी ने दर्शाया कि यह सतत काम करता है और कोशिका के कामकाज को सुचारु रूप से चलाए रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे यह भी दर्शा पाए कि यदि यह ठीक से काम न करे तो कई दिक्कतें पैदा होती हैं। खास तौर से तंत्रिका कोशिकाओं में यह प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वे लंबे समय तक जीवित रहती हैं और बड़ी होती हैं यानी मलबा काफी मात्रा में लंबे समय तक पैदा होता रहता है।
धीरे-धीरे यह स्पष्ट हुआ कि अल्ज़ाइमर, पार्किंसन व कई अन्य तंत्रिका विकारों का एक प्रमुख कारण यह है कि उनमें लायसोसोम अपना काम ठीक से नहीं करता। इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार इसी प्रक्रिया के महत्व को रेखांकित करता है। (स्रोत फीचर्स)