वर्ष 2016 का भौतिकी का नोबल पुरस्कार पदार्थों के विचित्र व्यवहार की व्याख्या में गणित के उपयोग के लिए वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के डेविड जे. टूलेस, पिं्रसटन विश्वविद्यालय के डंकन एम. हाल्डेन और ब्राउन विश्वविद्यालय के जे. माइकल कोस्टरलिट्ज़ को संयुक्त रूप से दिया गया है। वैसे उम्मीद तो यह की जा रही थी कि इस वर्ष नोबेल सम्मान हाल ही में हुई गुरुत्व तरंगों की खोज के लिए लिगो टीम को दिया जाएगा मगर वह खोज पुरस्कारों के लिए नामांकन की अंतिम तारीख निकल जाने के बाद हुई थी।
बहरहाल, इस वर्ष जिन तीन वैज्ञानिकों को नोबेल दिया गया है उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में पदार्थों के विचित्र गुणों को समझने के लिए पदार्थों की ज्यामितीय आकृतियों के गणित को आधार बनाया। गणित की इस शाखा को टोपोलॉजी या स्थलाकृति विज्ञान कहते हैं। अपने शोध कार्य से उन्होंने स्पष्ट किया कि पदार्थों की स्थलाकृति बदलने से उनके गुणधर्मों में परिवर्तन होते हैं और एक मायने में यह अवस्था परिवर्तन ही है। आम तौर पर हम पदार्थ की तीन अवस्थाएं जानते हैं - ठोस, द्रव और गैस मगर उपरोक्त शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण से पदार्थ की कई अवस्थाएं होती हैं जो उसकी स्थलाकृति से सम्बंधित हैं।

उदाहरण के लिए, कुछ पदार्थों में यह गुण पाया जाता है कि अत्यंत कम तापमान (करीब शून्य केल्विन) पर वे विद्युत के अति-चालक हो जाते हैं - इस स्थिति में वे विद्युत के प्रवाह में कोई बाधा नहीं पहुंचाते। यदि इन्हें गर्म किया जाए तो अति-चालकता नष्ट हो जाती है। माइकल कोस्टरलिट्ज़ और डेविड टूलेस ने टोपोलॉजी के तरीके से अति-चालकता की व्याख्या प्रस्तुत की और बताया कि कैसे तापमान बढ़ने पर अवस्था परिवर्तन के चलते यह गुण नष्ट हो जाता है। उन्होंने यह भी दर्शाया कि तापमान कम करने की बजाय यदि स्थलाकृति बदली जाए तो भी ऐसा ही असर होता है।
दूसरी ओर डंकन हाल्डेन ने इसी तरीके का उपयोग करते हुए विद्युत सम्बंधी एक और प्रभाव की व्याख्या की। इस प्रभाव को क्वांटम हॉल प्रभाव कहते हैं। काफी समय पहले देखा गया था कि यदि धातु की एक चादर के दो किनारों के बीच विद्युत प्रवाहित की जाए और चादर के लंबवत चुंबकीय क्षेत्र आरोपित किया जाए तो विद्युत की दिशा बदल जाती है। इसे हॉल प्रभाव कहते हैं। क्वांटम हॉल प्रभाव तब भी नज़र आता है जब धातु की चादर के बजाय एक ऐसा सुचालक लिया जाए, जो मात्र एक परमाणु के बराबर मोटा हो।
वैसे तो उक्त शोधकर्ताओं ने यह विश्लेषण 1970 व 1980 के दशकों में किया था मगर उनके विश्लेषण के आधार पर की गई भविष्यवाणियों की प्रायोगिक पुष्टि काफी देर से हुई। (स्रोत फीचर्स)