बाबा मायाराम एवं भारत डोगरा


रेक्स डी रोज़ारियो नहीं रहे, यह खबर सोशल मीडिया से मिली। वे अपनी पत्नी के साथ बेटी से मिलने अमरीका गए थे, जहां उनका निधन 19 जनवरी को हो गया। वे 68 वर्ष के थे।
विज्ञान पत्राकारिता में अपने अमूल्य योगदान के लिए रेक्स भाई सदा याद किए जाएंगे। पर जिन्होंने उन्हें किशोर भारती के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत देखा वे उन्हें सबसे पहले एक बहुत अच्छे इंसान के रूप में याद करते हैं।
वहां एक कर्मठ कार्यकर्ता, दिन-रात काम करने वाले जुनूनी, आम लोगों में घुल मिल जाने वाले, बहुत सहृदय दयालु और दूसरों की मदद करने वाले व्यक्ति के रूप में उन्हें पहचान मिली। वे स्पष्ट वक्ता थे और दूसरे की चिंता करने वाले दोस्त थे।
70 के दशक में साइंस टुडे पत्रिका की नौकरी छोड़कर किशोर भारती आ गए थे। अपने जीवन में कुछ सार्थक काम करने की चाह उन्हें किशोर भारती खींच लाई थी। 1972 में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के पूर्वी छोर पर एक गांव में स्थापित किशोर भारती उन दिनों इस व्यवस्था से बेचैन युवक-युवतियों के आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थी।

इस संस्था के उद्देश्यों में ग्रामीण विकास और शिक्षा में बदलाव प्रमुख थे। ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों में आर्थिक विकास कार्यक्रम था। इसके तहत कृषि के आधुनिकीकरण का कार्यक्रम था जिसके तहत उन्नत खेती शु डिग्री की गई थी। रेक्स भाई ने इसमें जुड़कर काम किया। शिक्षा के कार्यक्रम से होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम बना जिसमें सरकारी माध्यमिक स्कूलों में विज्ञान पाठ्यक्रम विकसित हुआ। बाद में इसे एकलव्य संस्था ने आगे बढ़ाया जिसको देश-दुनिया में सराहना मिली।
 रेक्स भाई की कई छवियां मानस पटल पर अंकित हैं। उन्हें घंटों ट्रेक्टर से खेतों की जुताई करते, रिंग के कुंओं में घुसकर मोटर पंप ठीक करते और आम किसानों की मदद करते, उनके खेतों में घूमते देखा जा सकता था।
किशोर भारती में बोगेनवेलिया और हरे-भरे पेड़-पौधों का बगीचा था। सबका काम अलग-अलग बंटा हुआ था। इनमें से कुछ लायब्रेरी में किताबों में डूबे रहते थे, कुछ गांवों में झोला लेकर सचल पुस्तकालय चलाते थे, कुछ साइकिलों से स्कूलों में जाते थे, कुछ खेतों में काम करते थे, रात में पानी देने जाते थे। सब अपना काम खुद करते थे। मेस में खाना खाते थे। थाली खुद धोते थे। झाड़ू लगाते थे। हम सबके लिए सब कुछ यहां नया था। लोग भी, उनका रहन-सहन और ढेर सारी किताबें। हम कौतूहलवश देखते थे। रेक्स भाई जैसे लोग गांवों के लोगों से आत्मीय व स्नेह से मिलते थे, दूरियां मिट जाती थीं।    

रेक्स भाई केरल से थे और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका साइंस टुडे में सम्पादक सुरेन्द्र झा के साथ काम किया। आम लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में इस पत्रिका का महत्वपूर्ण योगदान है।
रेक्स भाई ने साइंस टुडे पत्रिका के बारे में लिखा है, “उसने एकदम अग्रणी क्षेत्रों के धारदार विज्ञान - कम्प्यूटर, लेज़र, नैनो टैक्नॉलॉजी, रॉकेट विज्ञान, क्वांटम भौतिकी, क्रिस्टलोग्राफी, बायो टेक्नॉलॉजी आदि को लोकप्रिय बनाया, और पाठ्यक्रम आधारित विज्ञान से जूझती विद्यार्थियों की कई पीढ़ियों के लिए प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिकों के काम को समझ में आने वाला बनाया।”   

उन्होंने साइंस टुडे के बंद होने के बाद साइंस एज में भी काम किया। साइंस एज के सम्पादक भी सुरेन्द्र झा ही थे। वे अपने लेख में सम्पादक सुरेंद्र झा के व्यक्तित्व एक खास पहलू से परिचित करवाते हुए लिखते हैं कि “अपनी युवावस्था में वामपंथी रुझान वाले सक्रिय कार्यकर्ता रहे झा ने दोनों पत्रिकाओं के पृष्ठों का उपयोग सक्रिय प्रतिभागियों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अपने विचार रखने का अवसर देने के लिए भी किया था। चाहे वह बायो-गैस जैसी वैकल्पिक प्रौद्योगिक विधियां हों, या बड़े बांधों के निर्माण का पर्यावरण पर प्रभाव हो, या होशंगाबाद साइंस टीचिंग प्रोग्राम (एचएसटीपी) जैसे शैक्षणिक प्रयास हों। और यह सब ऐसे समय किया जब ऐसे प्रयास सार्वजनिक चेतना में हाशिए की गतिविधियां माने जाते थे।”
1982 में एकलव्य बना और 1984 में उसकी बाल विज्ञान पत्रिका चकमक की शुरुआत हुई। तब रेक्स ही इसके संस्थापक सम्पादक बने। चकमक में बच्चों को वैज्ञानिक ढंग से सोचने-समझने के लिए सामग्री होती थी। विज्ञान को सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया जाता था। बच्चों को चित्रों और लेखन के माध्यम से अपनी बात कहने को प्रेरित किया जाता था। रेक्स भाई के साइंस टुडे के अनुभव ने इस पत्रिका के संपादन में ज़रूर मदद की होगी। विज्ञान पत्रकारिता में एकलव्य ने साप्ताहिक विज्ञान फीचर सेवा स्रोत शु डिग्री की। इसके पहले संपादक भी रेक्स ही थे।
कुल मिलाकर रेक्स भाई युवावस्था से लेकर अपने आखिरी समय तक मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्रिय  रहे। एक व्यक्ति के रूप में उन्होंने बहुत लोगों को प्रभावित किया, सिखाया, और आगे बढ़ाया। विज्ञान पत्रकारिता में उनका काम हमेशा हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)