अनुपमा झा


पेड़-पौधों की सामाजिक दुनिया पर एक नज़र डालें तो उनमें लड़ाई-झगड़ा, साझेदारी आदि के अनेक उदाहरण मिलेंगे। इनकी सामाजिक दुनिया भी काफी विस्तृत और रोचक है। ज़मीन के नीचे इनके और फफूंद के बीच का सम्बंध काफी रोचक और वैज्ञानिक रुचि का विषय रहा है। फफूंद एक तरफ पेड़-पौधों की ज़रूरत पूरी करने में सहायता करता है, साथ ही उनके आसपास के वातावरण से परिचित कराने में भी उनके साथ रहता है। इन सबके बदले वह अपने इन मित्रों की सहायता से अपनी ज़रूरत भी पूरी करता नज़र आता है।
जंगल में सिर ऊंचे उठाए पेड़ एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाए खड़े नज़र आते हैं, गलबहियां डाले झूमते-इठलाते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन साथ-साथ धूप और हवा के लिए आपस में इनका संघर्ष भी अनदेखा नहीं रहता है। ज़मीन के ऊपर इनकी दोस्ती-दुश्मनी तो नज़र आती है लेकिन क्या आपको पता है कि ज़मीन के अन्दर भी ज़बर्दस्त साझेदारी (हर तरह की) नज़र आती है।

इस बात से तो हम सब वाकिफ हैं कि ज़मीन के अन्दर की दुनिया भी काफी दिलचस्प है। अपनी जड़ों के रूप में यहां भी इन पेड़-पौधों ने अपना साम्राज्य फैला रखा है। जड़ों की शाखाएं, उन शाखाओं से निकले पतले-पतले रोम ज़मीन की हर परत की मिट्टी और उनमें पाए जाने वाले जीव-जंतुओं की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं। जितनी दूर तक इनकी पहुंच होती है, उतना अधिक पानी और खनिज पौधों के विभिन्न भाग तक पहुंचा पाते हैं। यहां हम ज़मीन के अंदर पौधों की जड़ों के एक खास हमराही की बात करेंगे।
ये हमराही अनेक रूप में हमारे आसपास मौजूद हैं। इनका नाम है फफूंद। फफूंद जीव जगत का एक ऐसा सदस्य है जिसे हम आम तौर पर हानिकारक समझते हैं। ये जीवित तो हैं किन्तु इन्हें न तो पेड़-पौधों के समूह में रखा जाता है, न ही जानवरों की दुनिया में जगह मिलती है। इसका कारण इनका अनोखा स्वभाव और रंग-रूप है।

इनकी कोशिकाओं के पास पौधों की कोशिकाओं की तरह कोशिका की दीवार (कोशिका भित्ती) तो होती है किन्तु इनमें यह दीवार काइटीन नामक पदार्थ की बनी होती है, जबकि हमें पता है कि पौधों की कोशिका भित्ती सेल्यूलोज़ की बनी होती है। काइटीन कीड़ों के शरीर का आवरण बनाता है। दूसरी बात यह है कि पेड़-पौधों के विपरीत, फफूंद खुद से खाना बनाना पसंद नहीं करतीं। इन आलसियों को भी दूसरे जीवित और मृत पदार्थ से खाना लेना पसंद है। सोचिए इन्हें पौधों के साथ रखें या जानवरों के साथ? ये एक अलग ही समूह का निर्माण करती हैं, कवक समूह।
इस समूह के सदस्य दूसरों से खाना लेकर काफी तेज़ी से बढ़ते हैं। अपने पतले-पतले रेशों (मायसेलियम) के रूप में जाल जैसी संरचना का निर्माण करते हैं। यह जाल काफी दूर तक फैल सकता है। ज़मीन के अंदर की अंधेरी, नम-गर्म दुनिया इन्हें बढ़ने, फलने-फूलने में बहुत सहायक होती है। इतना ही नहीं इस माहौल में ये पेड़-पौधों की जड़ों के रूप में अपना साथी भी ढूंढ लेते हैं। गहरी छनती है दोनों में।

हर पेड़-पौधा या यूं कहें कि हर फफूंद अपने हिसाब से साथी ढूंढ़ लेती है। अपने इस साथी से साथ निभाने के लिए इन जड़ों को खुद को बिलकुल खुला छोड़ना होता है। मेरा मतलब है फफूंद के इन मुलायम पतले-पतले रेशों को जड़ के पतले-पतले रेशों के अन्दर जाना होता है। जी हां, फफूंद के रेशे अपना आशियाना जड़ के रोमों के अंदर बनाते हैं। लेकिन वह सिर्फ जड़ों के इन रोमों के अंदर ही नहीं रहते बल्कि जड़ के ऊपर फैलकर उन्हें पूरी तरह ढंकते नज़र आते हैं। इनके इस साथ से पौधों को दर्द होता है या नहीं इसकी जानकारी तो हमें नहीं है किन्तु इतना पता है कि इस दोस्ती को पेड़-पौधे की जड़ खुशी-खुशी स्वीकार करती है। वह इसलिए क्योंकि यह फफूंद ज़मीन के अन्दर से पानी के साथ-साथ फॉस्फोरस, नाइट्रोजन जैसे खनिज सोख कर जड़ों के माध्यम से पेड़-पौधों को देती है। वैज्ञानिकों ने इस बात की जांच की है। इसमें उन्होंने पाया कि ऐसे पेड़, जिनकी जड़ों की दोस्ती इन फफूंद से हो गई है, के पास पानी और खनिज रूपी खज़ाना अधिक होता है। इसके फलस्वरूप वे अधिक स्वस्थ होते हैं, साथ ही अधिक मात्रा में शर्करा आदि का निर्माण भी कर लेते हैं। यानी दोस्ती में फायदा तो है।
कहानी आगे बढ़ाते हैं। पौधों की जड़ों के अन्दर विचरण करने के साथ-साथ ये फफूंद जड़ों के बाहर भी टहलते-घूमते नज़र आते हैं और आसपास का समाचार भी इकट्ठा करते नज़र आते हैं। बहुत तगड़ी नेटवर्किंग होती है इनकी। आसपास के  समाचार (जैसे कोई हानिकारक जीव-जंतु या कीड़े-मकोड़े या फिर किसी लाभदायक पदार्थ की उपस्थिति की जानकारी) तो चुटकियों में इकट्ठा कर लेते हैं और अपने साथी को सतर्क कर देती हैं। इतना ही नहीं, अगर ज़मीन में उर्वरक यानी नाइट्रोजन आदि कम हों तो कुछ ऐसे रसायनों का स्राव करती हैं जिससे ज़मीन में मौजूद कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं और उनके शरीर में उपस्थित नाइट्रोजन आदि पेड़-पौधों को मिल जाते हैं।
वैसे दोस्ती दोतरफा है। इन फफूंद की भी कुछ ज़रूरतें होती हैं। अब अपनी इन सेवाओं के बदले ये इन पौधों से शर्करा और अन्य कार्बोहाइड्रेट के रूप में खाद्य पदार्थ मांगती हैं तो क्या गलत करती हैं? इस डील के मुताबिक पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा जितनी भी शर्करा तैयार करेंगे उसका एक तिहाई इन फफूंद का होगा। इतना तो बनता है। शायद कुछ ज़्यादा ही बनता हो क्योंकि इनकी तरफ से कुछ बोनस तोहफे भी मिलते हैं इनके पादप साथियों को। ये भारी धातुओं जैसे हानिकारक तत्वों को पौधों की जड़ों से दूर रखते हैं, जड़ों में घुसने नहीं देते। और तो और, ये हानिकारक जीवाणुओं, फफूंदों को भी भगाकर अपने दोस्त की रक्षा करते हैं।

ये फफूंद साथी काफी संवेदनशील होते हैं। हर किसी से दोस्ती करना इन्हें नहीं भाता। खास तरह के फफूंद खास तरह के पेड़-पौधों से ही दोस्ती करते हैं। हालांकि कई बार ऐसा भी होता है कि एक फफूंद को एक से अधिक किस्म के पेड़-पौधों का साथ पसंद आ जाता है। ऐसे में वह किसी को भी अपना साथी बना लेती है। एक बार साथ हो गया तो वह जल्दी छूटता नहीं है। आम तौर पर दोस्ती की लम्बी पारी खेलते नज़र आती हैं फफूंद, किंतु अगर माहौल अच्छा न हो (प्रदूषण) तो ये दम तोड़ देती हैं।
लेकिन किसी के जाने से ज़िन्दगी कहां रुकती है। इन फफूंद के दोस्त पेड़ अधिक दिन तक शोक नहीं मनाते। जल्दी ही वे पुन: उपयुक्त साथी ढूंढ लेते हैं और उनके साथ लेन-देन शु डिग्री कर देते हैं। आखिरकार उनके पास एक से अधिक विकल्प जो मौजूद होते हैं। (स्रोत फीचर्स)