अश्विन साई नारायण शेषशायी


प्रतिरोध की समस्या हमारे साथ रहेगी मगर ज़रूरी नहीं कि यह प्रलयंकारी हो। मानवजाति के सामने चुनौती यह है कि इसके साथ कदम मिलाकर चले और नए-नए गुणों वाले नए-नए एंटीबायोटिक का प्रवाह बनाए रखे।
व्यापारिक रूप से उपलब्ध होने से पहले ही पेनिसिलीन के खिलाफ प्रतिरोध के विवरण दिए जा चुके थे। सारे जीव कम या ज़्यादा रफ्तार से विकास करते हैं। बैक्टीरिया की आबादी बहुत विशाल है और उनकी प्रजनन की गति भी बहुत तेज़ है। परिणाम यह होता है कि मात्र संयोग से उनमें बड़ी संख्या में बेतरतीब जेनेटिक विविधता पैदा होती है। इन विविध रूपों में से कुछ में एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोध हो सकता है। यह भी ज़रूरी नहीं है कि खुद किसी बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन हो तभी उसके गुणसूत्र प्रतिरोधी बनेंगे। हालांकि प्रतिरोधी मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस इसी तरह विकसित हुआ है किंतु बैक्टीरिया एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारक आपस में साझा भी कर सकते हैं - इसे क्षैतिज जीन हस्तांतरण कहते हैं।
प्रतिरोध आम तौर पर प्रोटीन्स द्वारा प्रदान किया जाता है - कुछ प्रोटीन्स एंटीबायोटिक को परिवर्तित करके उन्हें गैर-विषैले पदार्थों में तबदील कर देते हैं या कुछ प्रोटीन्स होते हैं जो एंटीबायोटिक्स को बैक्टीरिया की कोशिका के बाहर फेंक देते हैं; या ऐसे फेरबदल करते हैं जो कोशिका के अंदर एंटीबायोटिक को उसके लक्ष्य तक पहुंचने में अवरोध पैदा करते हैं, या एंटीबायोटिक जिस स्थान को निशाना बनाता है उसमें परिवर्तन कर देते हैं जिसके चलते उस पर एंटीबायोटिक का कोई असर ही नहीं होता।

यदि कोई पर्यावरण एंटीबायोटिक से लबालब हो, तो बैक्टीरिया के जो रूप उस दवा के हमले को झेल सकते हैं वे अन्य रूपों से प्रतिस्पर्धा में जीत जाते हैं और धीरे-धीरे आबादी में उनका ही बोलबाला हो जाता है। अंतत: होता यह है कि बड़ी संख्या में बैक्टीरिया हमारे शस्त्रों से भेदे नहीं जा सकते। जैसे तेज़ी से संख्या वृद्धि करने वाले राक्षस हों और कोई बेबस देवता उन पर निष्प्रभावी शस्त्रों से आक्रमण कर रहा हो।
यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि एंटीबायोटिक के अति-उपयोग के चलते एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया का चयन कमोबेश निरंतर ढंग से होता रहेगा: ऐसी परिस्थिति में बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक-मुक्त पर्यावरण यदा-कदा ही मिलेगा और इसका परिणाम यह होगा कि ऐसे बैक्टीरिया बहुत कम संख्या में बच पाएंगे जो उस एंटीबायोटिक से भेद्य हों। और दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोध सिर्फ बैक्टीरिया तक सीमित नहीं है। एच.आई.वी. के ऐसे रूप मौजूद हैं जो उपचार में काम आने वाले प्रोटिएज़ अवरोधक के प्रतिरोधी हैं। क्लोरोक्वीन प्रतिरोधी मलेरिया परजीवी को तो हम सब जानते हैं। और तो और, कैंसर कोशिकाएं भी कीमोथेरपी के प्रति ज़िद्दी हो जाती हैं।

समस्या इसलिए और भी पेचीदा हो जाती है क्योंकि अधिकांश एंटीबायोटिक्स ‘विस्तृत परास’ वाले हैं। विस्तृत परास इस मायने में कि वे विशिष्ट किस्म के कुछेक बैक्टीरिया को नहीं बल्कि तमाम किस्म के बैक्टीरिया को मारते हैं। विस्तृत परास के एंटीबायोटिक विकसित करने के कुछ उपयोगी कारण भी हैं: डॉक्टर के लिए हमेशा व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं होता कि वह स्पष्ट रूप से उस बैक्टीरिया की शिनाख्त करे जिसके कारण संक्रमण हुआ है। ऐसी स्थिति में एक सामान्य एंटीबायोटिक ज़्यादा काम का होता है। विस्तृत परास वाले एंटीबायोटिक के पीछे कुछ व्यावसायिक कारण भी हैं। दूसरी ओर, विस्तृत परास वाले एंटीबायोटिक की उपस्थिति का मतलब यह होता है कि सिर्फ लक्षित बैक्टीरिया में ही प्रतिरोध पैदा नहीं होगा बल्कि कई सारे हानिरहित बैक्टीरिया भी प्रतिरोधी बन जाएंगे। फिर अंतत: क्षैतिज जीन हस्तांतरण के ज़रिए यह प्रतिरोध कई अन्य बैक्टीरिया में भी पहुंच जाएगा।

प्रतिरोध अपरिहार्य है
आइए, कोशिका भित्ती को लक्ष्य बनाने वाले एंटीबायोटिक्स का उदाहरण लेकर प्रतिरोध की उत्पत्ति को समझने का प्रयास करते हैं। पेनिसिलीन के खिलाफ प्रतिरोध का पहला स्रोत तो था लक्षित बैक्टीरिया में कतिपय एंज़ाइम्स की उपस्थिति। बीटालैक्टेमेज़ नामक ये एंज़ाइम्स पेनिसिलीन को हानिरहित पदार्थों में बदल देते हैं। बैक्टीरिया मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक तेज़ी से विकसित हो सकते हैं मगर अपने बड़े से दिमाग की बदौलत मनुष्य को नए विचार पैदा करने के लिए विकसित होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लिहाज़ा, वैज्ञानिकों ने पलटवार किया और पेनिसिलीन के ऐसे रूप तैयार किए जो पेनिसिलीन का मूल काम (यानी बैक्टीरिया को कोशिका भित्ति बनाने से रोकने का काम) तो कर सकते थे मगर बीटालैक्टेमेज़ से अप्रभावित रहते थे। बढ़िया! दिक्कत यह है कि बैक्टीरिया विकास करते हैं और तेज़ी से करते हैं। बैक्टीरिया की नई रणनीति यह थी कि उस प्रोटीन में उत्परिवर्तन कर लिया जाए जिस पर पेनिसिलीन प्रहार करता है। इस तरह से बैक्टीरिया पेनिसिलीन और उसके कई परिवर्तित रूपों के खिलाफ प्रतिरोधी हो गए।

बैक्टीरिया ने बीटालैक्टेमेज़ के ऐसे कई परिवर्तित रूप भी खोज लिए जो मनुष्य द्वारा निर्मित विभिन्न किस्म की पेनिसिलीन का विघटन कर सकते थे। संभवत: आज एंटीबायोटिक की मात्र दो ऐसी किस्में हैं जो विस्तृत परास वाले बीटालैक्टेमेज़ बनानेे वाले ई. कोली बैक्टीरिया को निशाना बना सकते हैं। ये बैक्टीरिया मूत्र मार्ग में संक्रमण पैदा करते हैं। आज शायद ही कोई रोगकारी बैक्टीरिया हो जो मूल पेनिसिलीन का प्रतिरोधी न होगा (संभवत: एकमात्र अपवाद ट्रेपोनोमा पैलिडम है जो सिफलिस पैदा करता है)।
वीकैम कंपनी में कार्यरत ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने खोजा कि हम क्लेवुलेनिक एसिड नामक पदार्थ की मदद से बीटालैक्टेमेज़ को ही बाधित कर सकते हैं। यह वही मशहूर ऑगमेंटिन (या क्लैवेम) है जिसका उपयोग आजकल डॉक्टर्स प्रथम चरण के एंटीबायोटिक के रूप में करते हैं - यह एमॉक्सिसिलीन (पेनिसिलीन का परिवर्तित रूप) और क्लेवुलेनिक एसिड का सम्मिश्रण है। अलबत्ता, बैक्टीरिया को तो बस इतना ही करना था कि बीटालैक्टेमेज़ का एक परिवर्तित रूप खोज निकाले जो क्लेवुलेनिक एसिड का प्रतिरोधी हो और उन्होंने ठीक यही किया। कहानी अंतहीन है। यहां तक कि एंटीबायोटिक रूपी अंतिम अस्त्र वेंकोमायसीन के साथ भी यही हुआ। कोशिका भित्ती को प्रभावित करने के लिए उसकी संरचना और क्रिया इतनी जटिल है कि बैक्टीरिया को प्रतिरोध हासिल करने के लिए एक प्रोटीन नहीं बल्कि प्रोटीन का समूचा नया तंत्र विकसित करना पड़ा, मगर बैक्टीरिया ने रास्ता खोज ही लिया।

अब हम जानते हैं कि प्रतिरोध अपरिहार्य है। जैसे कि जूलियन और डोरोथी डेविस ने अपने आलेख ‘ओरिजिन्स एंड इवॉल्यूशन ऑफ एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस’ (एंटीबायोटिक प्रतिरोध की उत्पत्ति और विकास) में लिखा है, “यदि जैव-रासायनिक तरीके से प्रतिरोध पैदा होना संभव है, तो वह पैदा होकर रहेगा।” वैसे यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता कि प्रतिरोध जैव-रासायनिक तरीके से संभव है, कम से कम कुछ दशकों या शायद सदियों में भी। मगर जैसा कि हम आगे देखेंगे, इस बात के कई कारण है कि क्यों यह जैव-रासायनिक तरीके से सिर्फ संभव ही नहीं है, बल्कि इसे संभव बनाने की तैयारी करोड़ों वर्षों से की गई है।

शुरुआत काफी पहले हुई
अधिकांश एंटीबायोटिक्स प्राकृतिक यौगिकों के परिवर्तित रूप हैं। और इनमें से कई बैक्टीरिया और फफूंदों की किस्मों द्वारा बनाए जाते हैं। आप देखेंगे कि यही समस्या की जड़ है। कोई भी व्यक्ति जब अपने आसपास के अधिकांश जीवन को तबाह करने के लिए ज़हरीली गैस फेंकेगा तो वह इतना ज़रूर सुनिश्चित कर लेगा कि वह खुद उस गैस का शिकार न बने, और नकाब वगैरह पहनकर रखेगा (हां आत्मघाती हो तो बात अलग है)। इसी तरह से यदि बैक्टीरिया को अपने प्रतिस्पर्धियों पर अंकुश लगाने के लिए एंटीबायोटिक बनाना पड़े, तो वह खुद उसके खिलाफ प्रतिरोधी होगा। इसका मतलब है कि प्रकृति में एंटीबायोटिक का जो उत्पादन लाखों-करोड़ों वर्षों से चल रहा है उसके साथ-साथ प्रतिरोध भी रहा होगा। दरअसल, ऊपर वेंकोमायसीन नामक जिस आखरी शस्त्र की बात की गई थी, वह प्रकृति में एक बैक्टीरिया द्वारा बनाया जाता है। और उसमें प्रोटीन का एक पूरा सेट होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि वेंकोमायसीन का उत्पादन खुद उसके लिए घातक न हो।

और इन एंटीबायोटिक उत्पादक बैक्टीरिया व फफूंद द्वारा जिन बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक का निशाना बनाया गया होगा, उन्होंने भी प्रतिरोध विकसित किया होगा जो मानव क्रियाकलापों से पूरी तरह स्वतंत्र था। सूक्ष्मजीव के कातिलों और उनके लक्ष्यों के बीच शस्त्रों की यह होड़ रोचक है। वास्तव में लगता है कि क्लेवुलेनिक एसिड एक पुरानी रणनीति है जिसका उपयोग सूक्ष्मजीव अपने प्रतिस्पर्धियों में पेलिनिसिलीन प्रतिरोध से निपटने के लिए करते थे। यह कोई अचरज की बात नहीं है कि हमें प्रकृति में कई एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया मिलते हैं। और तो और, कई बैक्टीरिया तो एंटीबायोटिक को दावत की तरह हज़म कर जाते हैं।
यह दलील दी गई है कि प्रतिरोध की कुछ कीमत होती है। जिस बैक्टीरिया के पास किसी एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध होता है और यदि पर्यावरण में से वह एंटीबायोटिक हटा लिया जाए तो प्रतिरोधी बैक्टीरिया किसी भेद्य बैक्टीरिया से प्रतिस्पर्धा में मात खा जाएगा। यह एंटीबायोटिक प्रतिरोध की लागत है। तो क्या एंटीबायोटिक प्रतिरोध को पलटना संभव है? शायद नहीं। क्यों? यह सही है कि पर्यावरण में एंटीबायोटिक्स का उच्च स्तर मानव-जनित है, मगर कम मात्रा में एंटीबायोटिक तो मिट्टी में, पानी में सदा से मौजूद रहे हैं क्योंकि कुछ बैक्टीरिया स्वयं ही इनका निर्माण करते हैं। हालांकि मनुष्य हर तरफ एंटीबायोटिक उड़ेलते रहते हैं, फिर भी पर्यावरण में इन अणुओं की सांद्रता इतनी नहीं होगी कि बैक्टीरिया आबादी के लिए जानलेवा बन जाए। जैसा कि डिएरमैड ह्यूजेस और डैन एंडरसन ने दर्शाया है, एंटीबायोटिक का अत्यंत अल्प स्तर, चाहे बैक्टीरिया की आबादी के सफाए के लिए नाकाफी हो, मगर यह उन रूपों का चयन अवश्य करेगा जो उस एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हों।

जैसी कि ह्यूजेस और एंडरसन ने कुछ वर्ष पहले भविष्यवाणी की थी और हाल ही में मेरी प्रयोगशाला में शोध छात्र आलाप मोगरे ने प्रयोगों से दर्शाया है, एंटीबायोटिक्स की अल्प सांद्रता में पनप रहे बैक्टीरिया जल्दी ही प्रतिरोध के कम लागत वाले तरीके खोज लेते हैं। दूसरे शब्दों में, एंटीबायोटिक्स की अल्प सांद्रता के तहत प्रतिरोध का विकास जल्दी ही उपरोक्त प्रतिरोध की लागत को समीकरण में से हटा देता है। और इसके साथ ही आशा की वह धुंधली-सी किरण भी गुम हो जाती है जो उभर सकती थी। जो लोग चिकित्सक द्वारा बताई गई खुराक का पालन नहीं करते उनके शरीर में एंटीबायोटिक की अल्प सांद्रता बनी रह सकती है। तो, केमिस्ट से एंटीबायोटिक खरीदकर खाने से पहले दो बार सोचें। और डॉक्टर द्वारा निर्धारित एंटीबायोटिक की खुराक और क्रम को तोड़ने से पहले भी दो बार सोचें।
एंटीबायोटिक प्रतिरोध की आखरी समस्या यह है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध प्रदान करने वाले अधिकांश प्रोटीन्स ऐसे अत्यंत प्राचीन प्रोटीन्स से सम्बंधित हैं जो बैक्टीरिया की कोशिका में कोई उपयोगी भूमिका निभाते थे। उदाहरण के लिए, बीटालैक्टेमेज़ उन एंज़ाइम्स से सम्बंधित हैं जो सामान्य बैक्टीरिया में कोशिका भित्ती को जमाने में मदद करते हैं। अर्थात, किसी बैक्टीरिया को प्रतिरोध का कोई सर्वथा नवीन तरीका नहीं जुगाड़ना पड़ता बल्कि वह उन्हीं चीज़ों में थोड़ा-बहुत फेरबदल करके काम चला सकता है।

एक नई शुरुआत
एंटीबायोटिक प्रतिरोध को एक गंभीर समस्या मानने के बाद, इस क्षेत्र में काफी अनुसंधान हुए हैं। हम ऐसे नए-नए रास्तों और साधनों की तलाश कर रहे हैं जिनके ज़रिए बैक्टीरिया अपना जीवनयापन करते हैं; हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि एंटीबायोटिक्स इन पर कैसे असर डालते हैं और बैक्टीरिया इनका सामना कैसे करते हैं। मसलन, जे.जे. कोलिन्स की प्रयोगशाला से यह तर्क आया है कि हालांकि अलग-अलग एंटीबायोटिक्स बैक्टीरिया कोशिका में अलग-अलग प्रत्यक्ष लक्ष्यों पर प्रहार करते हैं मगर आम तौर पर वे बैक्टीरिया की किसी अन्य शरीर-क्रिया पर भी असर डालते हैं और इस क्रिया में फेरबदल करके उस बैक्टीरिया में कुछ हद तक प्रतिरोध विकसित हो सकता है।
अकादमिक प्रयोगशालाएं नए एंटीबायोटिक उपचार की रणनीतियों पर अनुसंधान कर रही हैं। रॉय किशोनी की प्रयोगशाला ने व्यवस्थित रूप से यह दर्शाया है कि विभिन्न एंटीबायोटिक के कुछ सम्मिश्रणों के उपयोग से प्रतिरोध की समस्या को कुछ समय के लिए मुल्तवी किया जा सकता है - बशर्ते कि ये एंटीबायोटिक एक साथ नहीं बल्कि एक के बाद एक या किसी खास क्रम में दिए जाएं। एक विचार यह भी है कि स्वयं बैक्टीरिया को मारने की बजाय उसकी बीमारी पैदा करने की क्षमता को खत्म किया जाए। इस तरीके की एक दिक्कत यह होगी कि यदि वह बीमारी पैदा करना उस बैक्टीरिया के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है तो चयन के द्वारा प्रतिरोध पैदा हो जाएगा। कुछ वायरस बैक्टीरिया का भक्षण करते हैं। बैक्टीरिया का इलाज ऐसे वायरसों से करने का विचार फेलिक्स डी’हेरेल ने 1910 के दशक में दिया था और आज भी कुछ पूर्वी युरोपीय देशों में यह एक प्रायोगिक उपचार है। शायद वक्त आ गया है कि हम इन तरीकों पर नज़र डालें।

मेरे सहकर्मी वरदराजन सुंदरमूर्ति ने मायकोबैक्टीरियम टुबरकुलोसिस का सामना करने के तरीके पर काम किया है। तरीका यह है कि सीधे-सीधे बैक्टीरिया पर हमला न किया जाए, बल्कि बैक्टीरिया अपने मेज़बान में जिन शरीर क्रियाओं पर असर डालता है उन्हें बदला जाए। यह हमारे पूर्वजों के तरीके जैसा लगता ज़रूर है किंतु हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह आणविक स्तर पर काफी परिष्कृत ढंग से काम करता है। इसे एक प्रायोगिक उपचार माना जा सकता है जो इस विचार पर आधारित है कि वायरूलेंस (विषाक्तता) हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की अति-प्रतिक्रिया के कारण पैदा होता है और इस अति-प्रतिक्रिया को लक्ष्य बनाना वायरूलेंस से निपटने का एक तरीका हो सकता है।
और कुछ प्रयोगशालाओं, जिनमें जीव वैज्ञानिक तथा मानविकी के शोधकर्ता शामिल हैं, ने एक सूक्ष्मजीव-रोधी नुस्खा तैयार किया है जिसका विवरण नौवीं सदी के अंग्रेज़ी ग्रंथ लीचबुक ऑफ बाल्ड में मिलता है। उन्होंने व्यवस्थित खोजबीन के बाद बताया है कि यह बहु-औषधि प्रतिरोधी एमआरएसए बैक्टीरिया को मार सकता है। यहां मलेरिया-रोधी आर्टिमिसिनीन का ज़िक्र मुनासिब है। जड़ी-बूटियों से उपचार को पुनर्जीवित करने के मामले में हमें यह भी विचार करना होगा कि इनके उत्पादन को सामाजिक रूप से उपयोगी स्तर तक बढ़ाने में दिक्कतें होंगी।
आखिर में यही कहा जा सकता है कि प्रतिरोध की समस्या हमारे साथ रहेगी मगर ज़रूरी नहीं यह प्रलयंकारी हो। मानव मस्तिष्क के सामने चुनौती यह है कि इसके साथ कदम मिलाकर चले और नए-नए गुणों वाले नए-नए एंटीबायोटिक का प्रवाह बनाए रखे। साथ ही ऐसे तरीकों की तलाश की जाए जिनसे प्रतिरोध के विकास की गति कम की जा सके। इन तरीकों में सख्त नियमन और नियंत्रण शामिल होंगे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इनका उपयोग संयम और समझदारी से हो। यह खास तौर से हमारे जैसे देश में बहुत ज़रूरी है। यह संभव है बशर्ते कि हम चौकन्ने बने रहें। (स्रोत फीचर्स)