भारत डोगरा

254 ज़िलों के 2 लाख 55 हज़ार गांवों के 33 करोड़ लोग। ये हैं देश के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के सरकारी आंकड़े जो 10 राज्यों से प्राप्त हुए हैं। इसमें अभी कुछ अन्य राज्यों के कुछ सीमित क्षेत्रों के आंकड़े जुड़ सकते हैं। इससे समस्या की व्यापकता का पता चलता है पर साथ में ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जलवायु बदलाव के इस दौर में पहले से कहीं अधिक गंभीर सूखे की संभावना अनेक विषेशज्ञ पहले ही व्यक्त कर चुके हैं। अत: समस्या तो संभवत: बढ़नी ही है, महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सूखे की स्थिति का सामना करने के लिए हम पहले से कितनी तैयारी कर सकते हैं।
वैसे देश के विभिन्न भागों में स्थितियां भिन्न-भिन्न हैं पर कुल मिलाकर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि किसी भी वाटरशेड या जलग्रहण क्षेत्र में यदि कुछ वर्षों तक गहरी निष्ठा से काम किया जाए तो काफी हद तक सूखे का सामना करने की क्षमता विकसित की जा सकती है। वाटरशेड में ऊपर से नीचे तक विविध उपायों से इस तरह का उपचार किया जाता है कि वर्षा के पानी के एक बड़े हिस्से का संरक्षण हो जाता है।
इस बारे में विशेषज्ञों व वैैज्ञानिकों ने कई तरह के परिष्कृत व उपयोगी मॉडल तो प्रस्तुत किए हैं पर मौके पर यह देखा गया है कि बाहर से आई सब जानकारी अधूरी रह जाती है यदि स्थानीय लोगों का समुचित सहयोग प्राप्त न हो। अत: गांववासियों की स्थानीय स्थितियों सम्बंधी जानकारी का बेहतर से बेहतर उपयोग होना बहुत ज़रूरी है और इसमें भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भागीदारी प्राप्त करने में महिलाओं व निर्धन वर्ग की रचनात्मकता का बेहतर उपयोग किया जाए।

यदि दुख-दर्द को न्यूनतम करना है तो सबसे निर्धन व विषेशकर भूमिहीन परिवारों पर समुचित ध्यान देना बहुत ज़रूरी है। यथासंभव भूमिहीन परिवारों के लिए कुछ भूमि की व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए व इस भूमि के समतलीकरण व इसके लिए कुछ सिंचाई की व्यवस्था पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।
जल-प्रबंधन में परंपरागत ज्ञान को सही ढंग से समझना व इस के आधार पर जल स्रोतों का सही उपयोग करना बहुत सार्थक है। दूसरी ओर अनेक विशालकाय व बहुत महंगी परियोजनाओं के बारे में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि उनमें कई गंभीर समस्याएं हैं अत: इन पर अधिक धन बर्बाद न करते हुए हमें अधिक ध्यान ऐसी जल सरंक्षण परियोजनाओं पर देना चाहिए जो गांववासियों की भागीदारी से कार्यान्वित हो सकें। इसके लिए उचित प्राथमिकताएं तय करना बहुत ज़रूरी है।

फसल-चक्र तय करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि यह जल की स्थानीय परिस्थिति व खाद्य सुरक्षा के अनुकूल है। यदि पहले इस संदर्भ में गंभीर गलतियां हो गई हैं तो उन्हें सुधारने के प्रयास अवश्य होने चाहिए। फसल चक्र ऐसे होने चाहिए जिससे धरती का उपजाऊपन व नमी बनी रहे। ऐसी मिश्रित खेती अपनाना चाहिए जिसमें विभिन्न फसलें एक-दूसरे की पूरक हों व प्रतिकूल मौसम की स्थिति में भी कुछ फसलों का बचाव हो सके।
पहली प्राथमिकता मनुष्यों व पशुओं के पेयजल को मिलनी चाहिए जबकि दूसरी प्राथमिकता कृषि की रक्षात्मक सिंचाई को मिलनी चाहिए। किसी भी ऐसे कार्य की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए जिससे नदी, तालाब, झरने आदि जल स्रोत नष्ट होते हों। (स्रोत फीचर्स)