डॉ. वासुदेवन मुकुंद



16 जनवरी के दिन आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध व होम्योपैथी का संक्षिप्त रूप) ने एक लेखन प्रतियोगिता की घोषणा की थी। विषय था ‘होम्योपैथी से मधुमेह की चिकित्सा’। इस घोषणा के साथ एक नारा लिखा था: ‘Homeopathy4Diabetes’। बीएचएमएस (होम्योपैथिक चिकित्सा व शल्य क्रिया स्नातक) उपाधि धारकों को इस विषय पर 300-500 शब्दों का एक निबंध लिखकर 31 जनवरी तक सोशल मीडिया - This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. - पर भेजना था। मंत्रालय ने बताया था कि प्रविष्टियों में से वह ‘गुणवत्ता व लोकप्रियता’ के आधार पर पांच निबंध चुनेगा और उन्हें नगद पुरस्कार के अलावा उनके निबंध को फेसबुक पेज पर भी डाला जाएगा। प्रथम पुरस्कार 20 हज़ार रुपए का था।

होम्योपैथी एक संदिग्ध चिकित्सा प्रणाली है जिसमें इलाज के लिए प्राकृतिक अथवा संश्लेषित पदार्थों का उपयोग अत्यंत तनु घोल के रूप में किया जाता है और माना जाता है कि घोल जितना अधिक तनु होगा, उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा। यह प्रणाली दुनिया के कई हिस्सों में टिकी हुई है। कई देशों में तो राष्ट्रीय बीमा योजनाओं के ज़रिए इसे सरकारी समर्थन भी हासिल है - भारत के अलावा इनमें स्विटज़रलैण्ड, फ्रांस, यूके तथा डेनमार्क शामिल हैं। विडंबना यह है कि दुनिया भर की चिकित्सा संस्थाओं ने होम्योपैथी को एक छद्म विज्ञान घोषित किया है। कई अध्ययनों से पता चला है कि होम्योपैथी के नुस्खे किसी भी हाल में प्लेसिबो से बेहतर नहीं होते। (प्लेसिबो का मतलब है किसी मरीज़ को कोई असरहीन पदार्थ दवा कहकर दिया जाए।)

भारत में आयुष विभाग की स्थापना मार्च 1995 में स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत की गई थी। उस समय इसका नाम भारतीय चिकित्सा प्रणाली व होम्योपैथी विभाग था जिसे 2003 में बदला गया। नवंबर 2014 में इसका अपना मंत्रालय बना। 2016 के केंद्रीय बजट में आयुष मंत्रालय को 1326.20 करोड़ रुपए का आवंटन प्राप्त हुआ था (जो 2015 की अपेक्षा 17.8 प्रतिशत अधिक था)। इतने समर्थन के बावजूद इस मंत्रालय ने उन चिकित्सा प्रणालियों के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में कोई रुचि नहीं दिखाई जिनके लिए इसे बनाया गया है। अलबत्ता, आलोचना का सामना होने पर आयुष के पक्ष-विपक्ष दोनों के वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंता व्यक्त करने लगते हैं कि क्या इन प्रणालियों का मूल्यांकन उन्हीं तरीकों से - यानी डबल ब्लाइंड बेतरतीब क्लीनिकल ट्रायल से - किया जा सकता है।
पहले यह देखते हैं कि डबल ब्लाइंड बेतरतीब क्लीनिकल ट्रायल (आरसीटी) क्या चीज़ है। आरसीटी में जिन मरीज़ों को आज़माइशी दवा दी जाती है, उन्हें दो समूहों में बांट दिया जाता है। इनमें से एक समूह के मरीज़ों को वास्तविक दवा दी जाती है जबकि दूसरे समूह को प्लेसिबो दिया जाता है, हालांकि किसी मरीज़ को यह पता नहीं चलता कि वह किस समूह में है। दूसरा हिस्सा होता है कि दवा देने वाले डॉक्टरों और नर्सों को भी पता नहीं होता कि किस समूह को वास्तविक दवा दी जा रही है और किसे प्लेसिबो। इस तरह से दवा के प्रभाव के आकलन में मरीज़ और स्वास्थ्यकर्मी दोनों के पूर्वाग्रहों को निरस्त किया जाता है।

इस तरह की डबल-ब्लाइंड आरसीटी का इस्तेमाल योग की विशिष्ट प्रभाविता की जांच के लिए संभव नहीं है, जैसा कि कोक्रेन लायब्रेरी ऑफ रिव्यूज़ ने एक ताज़ा रिपोर्ट में दर्शाया है। आयुर्वेद का मामला तो और भी पेचीदा है। यह प्रणाली समग्र उपचार देने और व्यक्तिगत सुधार पर टिकी है न कि किसी रोग विशेष के इलाज पर। इस वजह से, और कुछ हद तक इस वजह से कि इसकी कुछ धारणाएं ज्योतिष पर आधारित हैं, आयुर्वेद को अस्वीकृत करना इस बात पर टिका है कि इसकी नैदानिक विधियां उपयुक्त नहीं हैं हालांकि इस सवाल पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि आयुर्वेद को प्रक्रिया-आधारित आरसीटी में शामिल करने को लेकर क्या दिक्कतें हैं। कई शोधकर्ता इस वार्तालाप को आगे न बढ़ा पाने के लिए नीयत को नहीं बल्कि धन के अभाव को दोषी ठहराते हैं।
किंतु पिछले वर्षों में जैसे-जैसे यह विभाजन बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अधिक से अधिक आयुर्वेद चिकित्सक छद्म वैज्ञानिक दायरों में सिमटते गए हैं।
छद्म वैज्ञानिकता का एक प्रमाण यह है कि जिन बातों को ठोस दावों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, उनके पीछे ठोस प्रमाणों का अभाव है - जैसा कि हाल ही में बीजीआर-34 के मामले में हुआ है। बीजीआर-34 मधुमेह के लिए एक आयुर्वेदिक दवा है जिसे राष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान अनुसंधान संस्थान और केंद्रीय औषधीय व गंधयुक्त पादप संस्थान ने संयुक्त रूप से विकसित किया है। इसके व्यापारिक उत्पादन व वितरण का काम एक निजी कंपनी एआईएमआईएल फार्माश्यूटिकल्स को सौंपा गया है।

अक्टूबर 2016 में स्वयं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका अनुमोदन किया था किंतु इसके कथित प्रभावों के प्रमाण कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं - न तो किसी समकक्ष समीक्षा वाले शोध पत्र के रूप में या पेटेंट के रूप में। इसके शोधकर्ताओं ने कहा है कि बीजीआर-34 को आयुष मंत्रालय ने स्वीकृति प्रदान की है किंतु ऐसी किसी स्वीकृति का कोई कानूनी आधार नहीं है। शोधकर्ताओं ने यह भी दावा किया है कि उन्होंने तृतीय चरण का आरसीटी पूरा किया है। किंतु उन्होंने मात्र 48 मरीज़ों को शामिल किया था जबकि औषधि व प्रसाधन कानून, 1940 के तहत न्यूनतम 500 मरीज़ों पर परीक्षण करना ज़रूरी होता है।
दूसरी ओर, होम्योपैथी की स्थिति यह है कि उसकी गहन जांच हो चुकी है और इन जांचों में से उसकी प्रभाविता के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। वर्ष 2005 में लैंसेट नामक प्रतिष्ठित शोध पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा पत्र का निष्कर्ष था कि “होम्योपैथी और सामान्य चिकित्सा प्रणाली दोनों के प्लेसिबो नियंत्रित परीक्षणों में पूर्वाग्रह उपस्थित होते हैं। जब विश्लेषण में इन पूर्वाग्रहों को छांटकर अलग किया गया तो होम्योपैथिक औषधियों के विशिष्ट प्रभावों को लेकर प्रमाण बहुत कमज़ोर थे जबकि सामान्य चिकित्सा पद्धति के विशिष्ट प्रभावों के पक्ष में सशक्त प्रमाण मिले।” ऑस्ट्रेलिया सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा 2015 में की गई एक समीक्षा का निष्कर्ष था कि “ऐसी कोई स्वास्थ्य सम्बंधी स्थिति नहीं है जिसके लिए इस बात के विश्वसनीय प्रमाण हों कि होम्योपैथी कारगर है”, और “होम्योपैथी का उपयोग ऐसी तकलीफों के उपचार में नहीं किया जाना चाहिए जो जीर्ण हों, गंभीर हों या जिनके गंभीर हो जाने का अंदेशा हो।”

इस सारी जानकारी के मद्देनज़र देखें तो आयुष मंत्रालय उन लोगों के जीवन को खतरे में डाल रहा है, जिनके लिए उपरोक्त प्रतियोगिता के निबंध लिखे जा रहे हैं, अर्थात मधुमेह के मरीज़। होम्योपैथी दवाइयां खरीदकर सेवन करना मरीज़ों के मन में सुरक्षित होने का मुगालता पैदा कर सकता है और उनके दुर्लभ संसाधन एक ऐसी चीज़ पर ज़ाया कर सकता है जो शायद कारगर न हो।
भारत में जिस ढंग से एलोपैथिक दवाइयां वितरित की जाती हैं, दोष उसका भी है। क्लीनिक/अस्पतालों के चक्कर और दवाइयां प्राय: वहन क्षमता के बाहर होते हैं। योग्य डॉक्टरों की भी काफी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा है कि प्रति 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। भारत में 1700 लोगों पर 1 डॉक्टर उपलब्ध है। और तो और, इनमें से 80 प्रतिशत डॉक्टर तो शहरों में स्थित हैं। यह परिस्थिति ग्रामीण इलाकों में नीम हकीमों के फलने-फूलने के लिए एकदम उपयुक्त हैं।
बहरहाल, इनमें से किसी भी आधार पर इस बात को उचित नहीं ठहराया जा सकता कि आयुष मंत्रालय एक अप्रामाणिक तरीके पर भरोसा कर रहा है। दरअसल, उपरोक्त निबंध प्रतियोगिता की घोषणा के मात्र पांच दिन बाद मंत्रालय ने भारतीय विज्ञापन मापदंड परिषद के साथ भ्रामक विज्ञापनों की जांच करने और उन्हें रोकने के एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। मंत्रालय के सचिव अजीत शरण ने इस अवसर पर बताया कि “आयुष मंत्रालय द्वारा उठाया गया यह एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे यह सुनिश्चित होगा कि भारतीय उपभोक्ताओं को सुरक्षित व प्रभावी औषधियां सुलभ हो सकें।”
तो हम कहां पहुंचते हैं? आयुष मंत्रालय स्वयं जब एक अप्रमाणित औषधि का अनुमोदन/विज्ञापन करे, तो इसकी शिकायत कहां की जाए? (स्रोत फीचर्स)
(यह लेख पहले अंग्रेज़ी द वायर में प्रकाशित हो चुका है।)