मैचिंग सेंटर में जाएं और एक से दिखने वाले रंगों के बीच भेद न कर पाएं तो दिक्कत हो सकती है। कई बार ऐसा होता है कि दो रंग एक-से दिखते हैं किंतु उनकी छटा थोड़ी अलग-अलग होती है। अब ऐसे समान दिखने वाले रंगों के बीच और बारीक भेद करने के लिए चश्मे बनाए गए हैं।
मनुष्य में रंगों को देखना आंखों में उपस्थित तीन प्रकार की शंकु कोशिकाओं की बदौलत संभव हो पाता है। ये तीन प्रकार की शंकु कोशिकाएं नीले, हरे और लाल रंग के प्रकाश के प्रति संवेदी होती हैं। वस्तुत: इन रंगों के बीच अंतर प्रकाश की तरंग लंबाई का होता है - नीले प्रकाश की तरंग लंबाई सबसे अधिक, हरे की उससे कम और लाल की सबसे कम होती है। इस तरह से रंग का एहसास करने की प्रणाली को तिरंगी प्रणाली कह सकते हैं।
कुछ जंतुओं में चार अलग-अलग रंगों की संवेदना पाई जाती है - जैसे गोल्डफिश में लाल, नीले, हरे और पराबैंगनी प्रकाश के प्रति संवेदी कोशिकाएं पाई जाती हैं। यह चतुरंगी प्रणाली उन्हें रंगों की ऐसी छटाएं देखने में मदद करती है जो मनुष्यों को दिखाई नहीं देते। इसी के आधार पर भौतिक शास्त्री मिखैल कैट्स को विचार आया कि क्यों न मनुष्यों को भी कृत्रिम रूप से चतुरंगी प्रणाली प्रदान की जाए।

कैट्स और उनके साथियों ने दोनों आंखों के लिए फिल्टर्स बनाए जो नीले वाले प्रकाश में से कुछ विशिष्ट हिस्से को सोख लेते हैं। अब दोनों आंखों तक वही नीला रंग थोड़ी अलग-अलग छटा में पहुंचाने लगा। इसकी वजह से रंगों में सूक्ष्म अंतर भी नज़र आने लगे।
शोधकर्ताओं ने सबसे पहले तो यह जांच की कि कंप्यूटर के पर्दे पर लोग किन रंगों को एक ही मानते हैं जबकि उनमें थोड़ा अंतर होता है। रंगों की ऐसी जोड़ियों को मेटामर कहते हैं। बगैर फिल्टर के जो रंग एक जैसे दिख रहे थे वे फिल्टर लगाते ही अलग-अलग नज़र आने लगे।
कैट्स ने अभी सिर्फ नीले रंगों में भेद के लिए फिल्टर बनाएं हैं किंतु वे अन्य रंगों पर भी प्रयोग करके देखना चाहते हैं। उनका विचार है कि उनके इन फिल्टर्स की मदद से नकली नोटों की पहचान संभव हो जाएगी। कई अन्य उपयोग भी सोचे जा सकते हैं। जैसे फलों की सतह पर होने वाले रंगों के सूक्ष्म परिवर्तनों के आधार पर यह बताया जा सकेगा कि फल सड़ने की स्थिति में आ गए हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)