अश्विन साई नारायण शेषशायी


विज्ञान हमारे जीवन का अमिट हिस्सा है। कहना न होगा कि दैनिक जीवन में हम जिन कई चीज़ों का उपयोग करते हैं, वे आधुनिक विज्ञान और उसके टेक्नॉलॉजी रूपी अवतार कीउत्पाद हैं। कई लोग मानते हैं कि विज्ञान और वैज्ञानिक सोच ही हमारे जीवन को बेहतर बनाने का एकमात्र तरीका है। हो सकता है कि यह अतिशयोक्ति हो किंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि विज्ञान ने विकास को संभव बनाया है, जिसे हम मानकर चलने लगे हैं और कुछ हद तक इसने टिकाऊ विकास को भी संभव बनाया है। इसके चलते वैज्ञानिक उद्यम से सम्बंध रखना, उसके दर्शन व कामकाज को समझना और इस बात पर नज़र रखना हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि चाहे ठोस आर्थिक दृष्टि से या जिज्ञासा को शांत करने की दृष्टि से उसका उपयोग कैसे होता है। यह बात प्रजातंत्र में और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है, जहां हर व्यक्ति को नीतियों पर प्रभाव डालने का अधिकार है, चाहे कितने ही छोटे पैमाने पर हो।
विज्ञान क्या है? चलिए, हम विज्ञान को ज्ञान प्राप्त करने के रूप में परिभाषित करते हैं। तो ज्ञान क्या है? सदियों से क्या, सहस्राब्दियों से कई दार्शनिक इस सवाल पर बहस करते रहे हैं। इस प्रश्न ने आज खास महत्व अख्तियार कर लिया है, जब हममें से कई लोगों को इंटरनेट पर भारी मात्रा में सामग्री पढ़ने, सुनने और देखने का मौका मिल रहा है। यह सारी सामग्री हमें कुछ-ना-कुछ सिखाने की कोशिश करती है। ज्ञान को लेकर अपनी समझ को हम संक्षेप में व्यक्त कर सकते हैं: ऐंद्रिक अनुभवों और उपयुक्त आधारों पर सैद्धांतिकरण करके आसपास की दुनिया के बारे में हम जो कुछ सीखते हैं।

गुणवत्ता और समृद्धता
विज्ञान में हम ऐंद्रिक अनुभव को प्रयोग के रूप में परिभाषित करेंगे और यह शर्त रखेंगे कि जिस बुनियाद पर सिद्धांत टिका है वह स्वयं प्रयोगों से या पूर्व में स्थापित सिद्धांतों से हासिल हुई है। प्रयोगों और सिद्धांतों में अक्सर मान्यताएं निहित होती हैं और यह एक अच्छी वैज्ञानिक प्रथा है कि इन मान्यताओं की स्पष्ट घोषणा की जाए और जहां संभव हो इनका औचित्य भी बताया जाए। यह दलील दी जा सकती है कि सारा ज्ञान संदर्भ-आश्रित और संभाविता आधारित होता है। संदर्भ-आश्रित इस मायने में कि कोई भी वैज्ञानिक कथन तभी सत्य होता है जब कतिपय अन्य शर्तें पूरी हों। संभाविता आधारित इस अर्थ में कि यदि हम सत्य तक कभी नहीं पहुंच सकते, तो किसी सिद्धांत के पक्ष में अधिकाधिक प्रमाण एकत्रित होने पर हम सत्य के मात्र और करीब आते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी सिद्धांत के विरुद्ध एक अकेले सशक्त प्रमाण, जो सिद्धांत को झुठलाता हो, को कदापि नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कार्ल पॉपर के मतानुसार खंडन-योग्यता ही विज्ञान को परिभाषित करती है और उसे ‘गैर-विज्ञान’ से अलग करती है।
अर्थात विज्ञान, सारे विषय-क्षेत्रों में, सत्य की तलाश है। वैज्ञानिक तमाम तकनीकों में हाथ-पैर मारते हैं - जैसा कि विद्रोही दार्शनिक पौल फेयरअबेंड ने कहा था - और विधियों व व्याख्याओं के चयन में अक्सर अराजक होते हैं (अगेन्स्ट मेथड, चतुर्थ संस्करण, 2010)। अराजकता कोई बुरी चीज़ नहीं है, और जब इसे इस रूप में परिभाषित किया जाए कि ‘कुछ भी चलता है’ या इस रूप में परिभाषित किया जाए कि यह वैज्ञानिक पद्धति की लकीर के विरुद्ध है, तो इससे सृजनात्मक किंतु कठोर खोजबीन की इजाज़त मिलती है। इस तरह की खोजबीन यदा-कदा परिवर्तनकारी विज्ञान का सबब बनती है। वैज्ञानिक इंसान ही होते हैं और अपनी प्रजाति के गुण-दोषों से मुक्त नहीं होते। इनमें ‘ख्याति और समर्थन’ पाने की ललक शामिल है। यही चीज़ फेयरअबेंड के विज्ञान की अराजकता के मूल में है।
सत्य की तलाश का अर्थ होता है किसी कथन के पक्ष या विरोध में वैज्ञानिक प्रमाण जुटाना। विज्ञान स्वयं के लिए जो आधार रेखा निर्धारित करता है, वह उसके द्वारा प्रमाण जुटाने के लिए प्रयुक्त प्रायोगिक व सैद्धांतिक तकनीकों की गुणवत्ता और कठोरता है। वह सदैव सुधार के प्रति खुला रहता है और उसमें आत्म-सुधार निहित है। विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में गुणवत्ता के अपने मापदंड हैं और हो सकता है कि किसी क्षेत्र की समृद्धता इसी बात से तय होती है कि वह ये आधार रेखाएं कहां निर्धारित करता है।

गुणवत्ता और समृद्धता इस बात से परिभाषित होती है कि वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त तकनीकें कितनी प्रासंगिक हैं और उन तकनीकों की विभेदन क्षमता कितनी है। जेनेटिक्स का इतिहास (राफेल फाक, जेनेटिक एनालिसिस, 2009) खूबसूरती से इस बात की बानगी पेश करता है कि कैसे यह क्षेत्र, आनुवंशिकता (जेनेटिक रूप से गुणों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तातांतरण) के व्यापक सवाल के संदर्भ में ज़्यादा प्रासंगिकता की ओर न सही, बेहतर विभेदन की ओर विकसित हुआ।

कम विभेदन वाला शोध
जेनेटिक विरासत के मुद्दे को सबसे पहले युरोपीय मठवासी ग्रेगर मेंडल ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में संबोधित किया था। दरअसल, उनका शोध कार्य आज से 150 साल पहले 1866 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने मटर के पौधों पर प्रजनन सम्बंधी प्रयोग किए थे। इन प्रयोगों में उन्होंने कुछ प्रेक्षणीय गुणों वाले मटर के पौधों - जैसे पीले रंग के मटर वाले पौधों - का संकरण किसी अन्य गुण वाले पौधों - जैसे हरे रंग के मटर वाले पौधों - से करवाया था। फिर उन्होंने इनकी संतानों का कुछ पीढ़ियों तक अध्ययन किया।

पौधों की जटिल जेनेटिक व जैव-रासायनिक मशीनरी के इन बाहरी लक्षणों के आधार पर मेंडल ने आनुवंशिकता का एक प्रभावशाली सिद्धांत विकसित किया था। आनुवंशिकता को लेकर पूर्ववर्ती विचारों में माना जाता था कि संतान में उसके माता-पिता के गुणों का ‘मिश्रण’ हो जाएगा: इसको मानें तो भविष्यवाणी यह होगी कि पीले मटर और हरे मटर के दानों वाले पौधों के संकरण से उत्पन्न संतानों में दानों का रंग हरे और पीले के बीच कहीं होगा। मेंडल के व्यवस्थित प्रयोगों ने दर्शाया कि आनुवंशिकता ‘कणीय’ होती है। अर्थात संतानों में मटर के दाने या तो पीले होते हैं या हरे और ये दो तरह के पौधे हमेशा एक निश्चित अनुपात में होते हैं। उसी समय चार्ल्स डारविन के काम से जैव विकास का गहन सिद्धांत विकसित हुआ जो मुख्य रूप से पक्षियों और जंतुओं के बाह्य लक्षणों के अवलोकनों पर आधारित था।
ये शुरुआती शोध कार्य, जिसमें डारविन की पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ शामिल है, आज आम पत्र-पत्रिकाओं तक पहुंच चुके हैं। इन्हें कोई सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी समझ सकता है। ये शोध कार्य के ऐसे मील के पत्थर थे जिन्होंने आनुवंशिकता की हमारी समझ को बदल कर रख दिया था। मगर ये कम विभेदन वाले शोध कार्य भी थे। इनमें आनुवंशिकता का निर्धारण करने वाले पदार्थ के बारे में या इस बारे में कुछ नहीं कहा गया था कि उसमें अंकित सूचनाएं किस तरह से प्रकट लक्षणों में प्रतिबिंबित होती है।

फास्ट फॉरवर्ड करके वर्तमान में आते हुए जल्दी से इस बात की झलकियां देखते हैं कि हमने आनुवंशिकता के जैव रसायन को समझने में कैसे बड़े-बड़े कदम उठाए हैं - इनमें आनुवंशिकता के लिए ज़िम्मेदार पदार्थ के रूप में डीएनए की पहचान, उसकी आणविक संरचना का खुलासा, तमाम जीव-जंतुओं के जीनोम्स में क्षारों का अनुक्रमण, हर किस्म के प्रोटीन्स और अन्य कोशिकीय रसायनों के बारीक कार्यों को अलग-अलग कर पाने की हमारी क्षमताएं शामिल हैं। हम देखते हैं कि आनुवंशिकता का विज्ञान आज काफी ‘उच्च विभेदन’ पर काम करता है। इसने आनुवंशिकता और जैव विकास को क्रियाविधि के गहरे स्तर पर समझने में मदद की है। किंतु यह तेज़ी से वैज्ञानिक रूप से साक्षर लोगों की समझ से भी परे होता जा रहा है।

विज्ञान का एक प्रकट चेहरा
जीव विज्ञानों में वैज्ञानिक प्रकाशन क्रांति के दौर में है। खुली पहुंच (ओपन एक्सेस) आज आम बात होने लगी है।  इसके चलते वैज्ञानिक शोध पत्र हर उस व्यक्ति की पहुंच में हैं जो इंटरनेट तक पहुंच सके। यह विशाल इंटरनेट का एक छोटा-सा हिस्सा है मगर वह हिस्सा है जिसके बारे में माना जाता है कि वह विचारधारा-आधारित नहीं बल्कि प्रमाण-आधारित सूचना को प्रसारित करता है। अलबत्ता, बदकिस्मती से इस सूचना तक पहुंच का मतलब यह नहीं है कि इसे आत्मसात भी किया जाएगा। एक तो वैज्ञानिक शोध में बढ़ते विभेदन के साथ बढ़ती विशेषज्ञता आती है। दूसरा आजकल वैज्ञानिकों पर बहुत दबाव होता है कि वे अपने शोध कार्य को अपने विषय की शब्दावली की सटीकता के साथ एक छोटे-से वैज्ञानिक समुदाय के लिए प्रस्तुत करें। इन दो बातों का मतलब है कि ‘सबके लिए खुली पहुंच’ की संभावना का एक बड़ा अंश साकार ही नहीं हो पाता।

पढ़े-लिखे आम पाठक के लिए विज्ञान का सर्वाधिक दृश्य चेहरा हर साल घोषित किए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के रूप में सामने आता है। मेरे अंदर बैठे वैज्ञानिक के लिए यह बढ़ती विशेषज्ञता की एक और झलक है। हालांकि कोई भी यह नहीं कहेगा कि पचास वर्ष पहले जिस चिकित्सा शोध कार्य को नोबेल से सम्मानित किया गया था, वह महत्वपूर्ण नहीं था। किंतु आज कई पेशेवर जीव वैज्ञानिक भी नोबेल से सम्मानित कार्य से मोटे-मोटे तौर पर ही परिचित होंगे। ऐसा इसलिए नहीं कि वह कार्य पथ-प्रदर्शक नहीं होता बल्कि इसलिए कि जीव विज्ञान में इतना अधिक विशेषीकरण है और प्रत्येक विशिष्ट शाखा अपने ही छोटे-से तालाब में जीवित रहती है और उसके पास अपने आसपास के तालाबों की बहुत सीमित समझ होती है। और इसीलिए ऐसे विशाल संयुक्त शोध कार्यों की बाढ़-सी आई हुई है जिसमें विभिन्न तालाबों के विविध वैज्ञानिक साथ मिलकर काम करते हैं। सारे नज़रिए एक ही तालाब में आ जाते हैं। इससे शायद नोबेल पुरस्कार न मिले किंतु आने वाले दिनों में यही आम तरीका होने वाला है।

आम लोगों के लिए विज्ञान के बारे में सूचनाओं का एक और स्रोत अखबार और पत्रिकाएं हैं। बदकिस्मती से, भारत में ऐसे अधिकांश मंचों पर कवरेज अत्यंत सनसनीखेज होता है और खोज की प्रक्रिया को कोई महत्व नहीं देता। यहां यह बात बिलकुल भी नहीं होती कि कैसे पता चला है कि अमुक चीज़ कैंसर का कारण है या फलां चीज़ पारकिंसन रोग का इलाज है। इस मामले में भी कुछ घटनाएं उम्मीद पैदा करती हैं। डाउन टु अर्थ पत्रिका बरसों से विज्ञान को हमारी प्रेस के औसत स्तर से कहीं बेहतर ढंग से कवर करती रही है। द वायर ने आम लोगों के लिए विज्ञान का एक संतुलित प्रस्तुतीकरण किया है। इसी प्रकार से चैन्ने से प्रकाशित पत्रिका फाउंटेन इंक ने भी विज्ञान व चिकित्सा सम्बंधी विस्तृत व सुंदर आलेख प्रकाशित किए हैं।
जब हम महत्वपूर्ण मसलों में अपनी बात ज़्यादा सुने जाने के लिए हल्ला कर रहे हैं, और यह समझ रहे हैं कि एक जानकारी-आधारित मत एक जज़बाती मत से बेहतर है, तब यह ज़रूरी है कि हम विज्ञान की प्रक्रिया व उसके उत्पादों तथा वैज्ञानिक सोच को समझने की पहल करें। पेशेवर वैज्ञानिक साहित्य में बढ़ते विशेषीकरण के चलते जन संचार माध्यमों में उच्च स्तर के वैज्ञानिक संप्रेषण की बहुत ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)