अश्विन साई नारायण शेषशायी



समकक्ष-समीक्षा विज्ञान में गुणवत्ता के आकलन की कसौटी है, जिसके तहत वैज्ञानिकों द्वारा लिखे गए और जर्नल्स में प्रस्तुत किए गए शोध पत्रों को प्रकाशन के लिए स्वीकार (या अस्वीकार) करने से पहले उसी विषय के दो-तीन विशेषज्ञों द्वारा देखा जाता है। अलबत्ता, अच्छे विज्ञान को तेज़ी से प्रसारित करने और खराब विज्ञान की छंटाई करने में इसकी प्रभाविता पर हाल में काफी विचार-विमर्श हुआ है। जेंडर, संस्थागत सम्बद्धता और अन्य मानवीय कमज़ोरियां समकक्ष-समीक्षा की प्रक्रिया में पूर्वाग्रह जोड़ देती हैं। इसके चलते अनुसंधान संप्रेषण की बुनियाद पर ही सवाल खड़े होने लगते हैं। इन चिंताओं के मद्देनज़र अनुसंधान संप्रेषण - खास तौर से जीव विज्ञान और जैव-चिकित्सा विज्ञान का अनुसंधान संप्रेषण कहां खड़ा है?
इंटरनेट-पूर्व के युग में, जर्नल की मध्यस्थता से संचालित समकक्ष-समीक्षा प्रक्रिया कुछ भी न होने से तो बेहतर ही थी। मुद्रित पृष्ठ महंगे होते थे (आज भी हैं) और जर्नल्स को यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका तो निकालना ही पड़ा कि वे वही छापें जो वे छापना चाहते हैं ताकि अच्छे विज्ञान को प्रकाशित करने की अपनी छवि को बनाए रख सकें। अलबत्ता, इंटरनेट और सस्ते डिजिटल भंडारण ने समकक्ष-समीक्षा के तौर-तरीकों को बदलकर रख दिया है: सारे समकक्ष लोगों द्वारा और एक आदर्श परिस्थिति में समस्त साक्षर लोगों द्वारा समीक्षा। प्रकाशन के क्षेत्र में विचारों और कार्रवाई की कम से कम दो धाराएं इस दिशा में लक्षित हैं: विज्ञान साहित्य की खुली उपलब्धता (पहुंच) और समकक्ष-समीक्षा प्रक्रिया में बड़े बदलाव।

पारंपरिक विज्ञान जर्नल ग्राहकी आधारित होते हैं। लोकप्रिय पत्रिकाओं के विपरीत इन जर्नल्स का ग्राहक शुल्क बहुत अधिक होता है और अधिकांश पाठकों की हैसियत से परे होता है। लिहाज़ा, इन जर्नल्स तक पहुंच संस्थागत ग्राहकी के ज़रिए होती रही है। इसका मतलब है कि वही लोग इन जर्नल्स को पढ़ सकते हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में काम करते हैं (अपनी संस्था की लायब्रेरी के माध्यम से)। पर्याप्त वैज्ञानिक साक्षरता से लैस किंतु विज्ञान को एक पेशे के रूप में न अपनाने वाले लोगों को ये जर्नल्स सुलभ नहीं थे। और तो और, लेखकों और उनके नियोक्ताओं को अपना कॉपीराइट जर्नल के प्रकाशक को सौंपना पड़ता था। विज्ञान के जिन परिणामों के लिए पैसा करदाता ने दिया है, उसके फल करदाताओं के पास कभी-कभार ही पहुंच पाते थे।

रेफरी रिपोर्ट्स और अभिमत
अलबत्ता, पिछले 15 वर्षों से खुली पहुंच वाले (ओपन एक्सेस) जर्नल उभरकर आए हैं। ये सारे प्रकाशनों को हर व्यक्ति के पढ़ने व उपयोग के लिए ऑनलाइन उपलब्ध कराते हैं। कॉपीराइट लेखक के पास ही रहता है। मगर दिक्कत यह है कि लेखकों या उनके संस्थानों को प्रकाशन के लिए भुगतान करना होता है। इन जर्नल्स में प्रकाशन करवाना बहुत महंगा पड़ता है। गौरतलब है कि भुगतान करने की क्षमता का मतलब यह नहीं होता कि किसी वैध ओपन एक्सेस जर्नल में आपका शोध पत्र छप ही जाएगा।
एक दलील यह दी गई है कि ओपन एक्सेस जर्नल में प्रकाशन की लागत सामान्यत: उस लागत से कम होती है जो उसी लेख को ग्राहकी के ज़रिए प्राप्त करने में लगेगी। कई देशों व वित्तपोषक संस्थाओं ने यह अनिवार्य कर दिया है कि करदाता के पैसों से हुए किसी भी शोध को खुले मंचों पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इस शर्त के तहत प्रकाशन की लागत की भी पूर्ति की जाती है। पैसे की बात को छोड़ दें, तो भी विशुद्ध विज्ञान संचार के लिहाज़ से भी इस तरीके के अच्छे और बुरे बिंदु हैं।

ओपन एक्सेस का सबसे स्पष्ट फायदा यह है कि सारे सम्बंधित पक्षों के लिए - बशर्ते उनके पास इंटरनेट सुविधा हो - मनचाही चीज़ों को पढ़ना, सराहना और उसकी आलोचना करना संभव हो जाता है। व्यापक पहुंच की इसकी संभावनाओं को देखते हुए कई ओपन एक्सेस जर्नल्स लेखकों से अपेक्षा करते हैं कि वे ‘सामान्य लोगों’ के लिए एक सारांश भी लिखेंगे, जिसमें वे अपने शोध कार्य का महत्व स्पष्ट करेंगे। इन विवरणों की गुणवत्ता पर ज़रूर बहस हो सकती है, किंतु इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ओपन एक्सेस ने वैज्ञानिकों को अमूर्त शब्दावली से पिंड छुड़ाने और अपना शोध कार्य आम लोगों के लिए समझने योग्य बनाने का मौका दिया है।
ओपन एक्सेस आंदोलन का एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ है कि कई सारे धंधेबाज़ जर्नल्स प्रकट हो गए हैं। यहां कोई भी पैसा देकर प्रकाशन करवा सकता है। इन ‘जर्नल्स’ में प्रकाशित बहुत कम सामग्री कसौटियों पर खरी उतरती है। जहां दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ शोध केंद्रों और विश्वविद्यालयों में मुख्यधारा विज्ञान का ऐसे प्रकाशनों से कोई लेना-देना नहीं है, वहीं हमारे देश के कई शोधकर्ता ऐसे मंचों पर प्रकाशन के मोह में फंस जाते हैं।
इस आलेख का शेष हिस्सा उन वैज्ञानिकों की बात करता है जो इतने भोले-भाले नहीं या उन पर इतने नीचे गिरने का कोई दबाव नहीं है कि वे ऐसी जगहों पर अमानक या धोखाधड़ी वाली सामग्री प्रकाशित करें।

वैध प्रकाशकों और अग्रणी समितियों द्वारा प्रकाशित कई ओपन एक्सेस जर्नल्स ने समकक्ष समीक्षा के वैकल्पिक मॉडल्स के साथ प्रयोग करना शु डिग्री किया है।
देखा जाए तो समकक्ष समीक्षा के प्रचलित मॉडल की सबसे प्रखर आलोचना यह है कि इसमें पारदर्शिता का अभाव है। शोध पत्र छप जाते हैं और वैज्ञानिक यह सोचते रह जाते हैं कि कोई चीज़ समकक्ष समीक्षा की नज़र से बच कैसे गई। यह बात या वह बात रेफरियों ने देखी कैसे नहीं? ज़रूर कुछ गड़बड़ है। शायद जर्नल ने अनुपयुक्त रेफरी चुन लिए हैं या उस शोध पत्र को प्रकाशित करने की कोई और मजबूरी रही होगी। इस तरह की आलोचनाएं प्राय: गपशप के दायरे के बाहर नहीं आ पातीं, मगर ये वास्तविक एहसास हैं (जायज़ हों या न हों)। दूसरी बात यह है कि समीक्षाकर्ता प्राय: लेखकों के लिए गुमनाम होते हैं, हालांकि अधिकांश लेखक दावा करते हैं कि उन्होंने थोड़ी-बहुत जासूसी करके पता लगाने की कोशिश की है कि रेफरी रिपोर्ट में किसने क्या कहा है। कई लोगों की दलील है कि समीक्षकों की गुमनामी वह मुखौटा है जिसके पीछे प्रतिशोधी समीक्षक छिप जाते हैं और ऐसी विषवमन करने वाली रिपोर्ट लिखते हैं। यदि कोई संपादक ऐसी रेफरी रिपोर्ट को सतही तौर पर देखे तो ये उस जर्नल में उस लेख का शोक संदेश साबित होती हैं।

पारदर्शिता के मुद्दे को संभालने के लिए, कई जर्नल्स (जिनमें इएमबीओ जर्नल, ई-लाइफ और पीयर-जे जैसे नए-पुराने जर्नल शामिल हैं) ने शोध पत्र के साथ रेफरी की रिपोर्ट्स, इन टिप्पणियों पर लेखक का जवाब और संपादक का निर्णय छापने की नीति अपनाई है (कई मामलों में इसके लिए लेखक की अनुमति ली जाती है)। इससे पाठकों को शोध पत्र में प्रस्तुत प्रमाणों को नई दृष्टि से देखने व व्याख्या करने का अवसर मिलता है। कई जर्नल्स ने रेफरी द्वारा अपनी रिपोर्ट पर दस्तखत करना अनिवार्य बना दिया गया है या उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसके पीछे विचार यह है कि अपनी रिपोर्ट्स के साथ नाम छापे जाने की स्थिति में कुछ हद रेफरियों को उस शोध पत्र को अपनाने तथा आलोचना करते हुए थोड़ा ज़्यादा सावधान और रचनात्मक रहने की प्रेरणा मिलेगी। कुछ जर्नल्स (जैसे पीयर-जे) तो प्रत्येक रेफरी रिपोर्ट से साथ एक डिजिटल पहचान भी जोड़ते हैं ताकि भावी शोध पत्रों में इन रिपोर्ट्स का हवाला दिया जा सके। इससे रेफरी के काम का महत्व बढ़ता है और उसे मान्यता मिलती है।

हम देख चुके हैं (इस लेख के प्रथम भाग में) कि संपादकों को कई बार परस्पर विरोधी रिपोर्ट्स को संभालना होता है। कारण यह है कि शोध पत्र अक्सर पेचीदा होते हैं, इस बात को लेकर नज़रिए अलग-अलग होते हैं कि अच्छा और ठोस विज्ञान क्या होता और यह स्वाभाविक है कि किसी शोध पत्र की वैधता को लेकर मतभिन्नता होगी। प्रत्येक रेफरी अपने-अपने दायरे में काम करते हैं और उसी शोध पत्र की समीक्षा करने वाले अन्य लोगों से बातचीत नहीं करते। वास्तव में रेफरी की पहचान संपादक या संपादकीय स्टाफ के अलावा किसी और को पता नहीं होती। हाल ही में शुरु हुए जर्नल ई-लाइफ (संपादक रैंडी शेकमैन) में रेफरी की रिपोर्ट्स छापने के अलावा रेफरियों के बीच संवाद को भी बढ़ावा दिया जाता है और लक्ष्य यह होता है कि लेखक को एक संकलित रिपोर्ट दी जाए। उम्मीद है कि इससे लेखक थोड़ी चैन की सांस ले पाएंगे। ज़ाहिर है कि ई-लाइफ अपने रेफरियों को भुगतान भी करता है, जो जीव विज्ञान के क्षेत्र में तो नई बात है जहां वैज्ञानिक लोग शोध पत्रों की समीक्षा बगैर किसी लाभ के करते हैं।

नवीन जर्नल का मॉडल
सिद्धांत और व्यवहार में समकक्ष समीक्षा कोई बुरी चीज़ नहीं है। चाहे इसमें कुछ भी खामियां हों, मगर आधुनिक विज्ञान जैसी जटिल व विशेषज्ञता से परिपूर्ण चीज़ का मूल्यांकन समकक्ष समीक्षा से ही संभव है। सवाल है कि क्या इसका एकमात्र तरीका यह है कि समकक्ष समीक्षा जर्नल व उसके संपादकों की मध्यस्थता से की जाए। क्या जर्नल्स किसी शोध पत्र की समीक्षा के लिए उपयुक्त समकक्ष व्यक्ति ढूंढने का काम अच्छी तरह करते हैं? क्या अत्यंत सीमित समकक्ष रिपोर्ट के आधार पर किसी शोध पत्र का भविष्य तय करने की दृष्टि से संपादक सर्वोत्तम स्थिति में होते हैं।
करीब 10 वर्ष पहले बायोइंफॉर्मेटिक्स और वैकासिक जीव विज्ञान के अग्रणी विशेषज्ञ यूजीन कूनिन और डेविड लिपमैन ने बायोलॉजी डायरेक्ट नामक एक जर्नल शुरु किया था। इसने कॉपी-एडिटिंग और मुद्रण के अलावा लगभग सारा काम जर्नल के नियंत्रण से बाहर कर दिया था और समकक्ष समीक्षा करवाने और शोध पत्रों को प्रकाशन के लिए स्वीकार करवाने की ज़िम्मेदारी स्वयं लेखकों को सौंप दी थी।
किसी भी शोध पत्र को स्वीकार किए जाने के लिए ज़रूरी था कि लेखक अपने विषय के तीन विशेषज्ञों को शोध पत्र की समीक्षा करने को तैयार करे। यदि लेखक ऐसा कर पाते हैं तो जर्नल को वह शोध पत्र प्रकाशित करने में कोई आपत्ति न होगी, चाहे समीक्षकों की रिपोर्ट कुछ भी हो। पेंच यह था कि रेफरियों की सारी रिपोर्ट्स और लेखक के जवाब साथ में छापे जाएंगे। यदि लेखक ऐसा करने में असहजता महसूस करते हैं तो शोध पत्र स्वत: अस्वीकार हो जाएगा। रेफरियों के नाम भी सार्वजनिक होंगे, जो लेखकों को अपात्र मित्रों को रेफरी बनाने से निरुत्साहित करेगा। जर्नल ठीक-ठाक चल रहा है और अपने संरक्षकों के वैज्ञानिक प्रोफाइल के अनुरूप ही है। बायोइंफॉर्मेटिक्स और वैकासिक जीव विज्ञान के क्षेत्र में इसने प्रतिष्ठा हासिल कर ली है।

दी अमेरिकन सोसायटी फॉर माइक्रोबायोलॉजी ने कुछ हद तक बायोलॉजी डाइरेक्ट के मॉडल का अनुसरण करते हुए हाल ही में एम-स्फीयरडायरेक्ट नामक एक जर्नल शु डिग्री किया है। इसमें भी लेखक स्वयं अपने रेफरी चुनते हैं, उनसे संपर्क करते हैं, अपने शोध पत्र की समीक्षा करवाते हैं और रेफरियों की टिप्पणियों पर अपनी क्षमता के अनुसार प्रत्युत्तर देते हैं। इसके बाद वे समीक्षा दस्तावेज़ों के साथ अपना शोध पत्र जर्नल को प्रस्तुत करते हैं।
जर्नल का मानना है कि अच्छी गुणवत्ता के विज्ञानका प्रकाशन सुनिश्चित करने में संपादकों की कुछ भूमिका अवश्य है। लिहाज़ा, यह बायोलॉजी डायरेक्ट से थोड़ी अलग राह पर चलता है। इसमें रेफरियों की रिपोर्ट्स और लेखक के जवाबों को देखने के बाद शोध पत्र को प्रकाशित करने का निर्णय संपादक के हाथ में है। हमें इस जर्नल में प्रथम शोध पत्र के प्रकाशन का इन्तज़ार है। अलबत्ता, यह ध्यान रखना चाहिए कि यह मॉडल इस प्रकाशक के लिए नया नहीं है। वह पहले से ही कुछ अग्रणी वैज्ञानिकों (जिन्हें अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ माइक्रोबायोलॉजी का सदस्य चुना गया है) को सीधे समीक्षा की यह सुविधा देता आया है। यह विज्ञान में एक वीआईपी संस्कृति का लक्षण था और उम्मीद है कि एम-स्फीयरडायरेक्ट इस सुविधा का प्रजातांत्रिकरण करेगा।

मध्यस्थता की ज़रूरत
इंटरनेट ने हमारे जीवन को बदलकर रख दिया है। इसने विज्ञान के प्रकाशन और समीक्षा के तौर-तरीके भी बदल डाले हैं। अधिकांश आधुनिक जर्नल्स पाठकों को लेखों पर ऑनलाइन टिप्पणी करने की अनुमति देते हैं। यह अलग बात है कि इसका उपयोग बहुत कम लोग करते हैं। हम प्राय: देखते हैं कि कई वैज्ञानिक शोध पत्रों के बारे में सोशल मीडिया पर 140 अक्षरों का अपना मत प्रकट करते हैं। दरअसल, कई जर्नल्स सांख्यिकीय आंकड़े भी प्रकाशित करते हैं कि सोशल मीडिया या ब्लॉग्स पर उस शोध पत्र का कितनी बार उल्लेख हुआ है। हालांकि इससे यह तो सुनिश्चित होता है कि प्रकाशन के बाद विज्ञान की व्यापक समीक्षा होती है किंतु इसमें गहराई का अभाव है।
प्रकाशन-उपरांत समीक्षा के लिए समर्पित उद्यमों में से एक है फैकल्टी 1000 (एफ 1000) जिसमें वैज्ञानिकों का एक समूह प्रकाशित शोध पत्रों की समीक्षा करता है, मूल्यांकन करता है और उसकी अनुशंसा करता है। कई बार ऐसा हुआ है कि इस मंच पर जिन वैज्ञानिकों के शोध पत्र को सराहा गया, वे इस बात का उल्लेख अपने परिचय में करते हैं। बहरहाल, यह अभी समकक्ष समीक्षा और पारंपरिक समीक्षा की अपेक्षा ज़्यादा सीमित समीक्षा ही है, इस मायने में कि अधिकांश शोध पत्रों को एफ 1000 द्वारा नहीं पढ़ा जाएगा, चाहे उनकी गुणवत्ता कुछ भी हो। अर्थात एफ 1000 द्वारा किसी शोध पत्र को देखा जाना उसके महत्व अथवा गुणवत्ता का द्योतक नहीं है।

इसी प्रकार से पबपीयर नामक एक वेबसाइट पर शोध पत्रों की प्रकाशन-उपरांत समीक्षा प्रकाशित की जाती हैं। यह वेबसाइट खबरों में रही थी क्योंकि इस मंच के समीक्षकों ने कई उच्च-स्तरीय शोध पत्रों में धोखाधड़ी पहचानी थी। इसके चलते वेबसाइट के विरुद्ध मुकदमे भी दायर हुए। रेफरी गुमनाम रहते हैं और कई लोगों ने इस बात की आलोचना की है।
और अंत में - क्या हमें जर्नल की मध्यस्थता वाली समकक्ष समीक्षा की ज़रूरत है? अधिकांश अच्छे वैज्ञानिक अपने विषय के लोगों के साथ काम की चर्चा करते हैं, शोध पत्रों के मसौदे उन्हें दिखाते हैं और यदि कोई टिप्पणी हो तो उसके बारे में कुछ करते हैं। जर्नल मध्यस्थता वाली समीक्षा उपयोगी है, यह दर्शाने का एकमात्र तरीका यह है कि किसी प्रकार से यह दिखाया जाए कि समकक्ष समीक्षा आधारित जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्र स्पष्ट रूप से अन्य जर्नल्स से बेहतर होते हैं। यह प्रमाण उपलब्ध नहीं है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के पबमेड डैटा बेस में 30,000 समकक्ष समीक्षा शुदा बायोमेडिकल जर्नल्स की सूची है जो बहुत बड़ी संख्या है। ये सभी समकक्ष समीक्षा आधारित जर्नल्स हैं और गुणवत्ता का हर स्तर इनमें देखा जा सकता है। किसी भी प्रतिष्ठित जर्नल के हर अंक में विभिन्न गुणवत्ता के शोध पत्र होते हैं।

यदि किसी कामकाजी वैज्ञानिक को दो वैज्ञानिक आलेख दिखाएं जाएं (जिनमें से एक समकक्ष समीक्षा वाला हो और दूसरा साधारण हो) तो क्या वह यह पहचान पाएंगे कि इनमें से कौन-सा समकक्ष समीक्षा से गुज़रा है? निम्नलिखित वाक्य समकक्ष समीक्षा सम्बंधी आलेख से लिया गया है:
रॉबी फॉक्स, लैंसेट के प्रतिष्ठित संपादक, जो समकक्ष समीक्षा के खास प्रशंसक नहीं थे, सोचते थे कि यदि वे ‘स्वीकृत’ और ‘अस्वीकृत’ लेखों की फाइलों की अदला-बदली कर दें, तो क्या किसी को पता चलेगा? वे मज़ाक में कहा करते थे कि लैंसेट में एक व्यवस्था है कि हम शोध पत्रों के पुलिंदे को सीढ़ी से फेंक देते हैं, और जो पर्चे नीचे तक पहुंचते हैं, उन्हें प्रकाशित कर देते हैं।
जब मैं ब्रिटिश मेडिकल जर्नल का संपादक था, तब मुझे ब्रिटेन के दो शोधकर्ताओं ने चुनौती दी थी कि जर्नल का एक ऐसा अंक प्रकाशित करूं जिसमें सिर्फ वही शोध पत्र हों जो समकक्ष समीक्षा में नाकाम रहे थे और देखूं कि क्या किसी को इस बात का पचा चलता है। मैंने जबाव में लिखा था, “आपको कैसे पता कि मैं पहले ही ऐसा नहीं कर चुका हूं।”

तो क्या यह संभव है कि वैध विज्ञान का प्रकाशन हो और समकक्ष समीक्षा प्रक्रिया न हो? जीव विज्ञान ने भौतिकी का विचार उधार लिया था जब करीब 15 वर्ष पहले जर्नल जीनोम बायोलॉजी ने समकक्ष समीक्षा से गुज़र रहे शोध पत्र जमा करने की व्यवस्था अपनाई थी। प्रकाशन से पूर्व सर्वर सुविधा के पीछे विचार यह था कि वैज्ञानिक उद्यमों के परिणामों को जर्नल द्वारा चलाई गई समीक्षा प्रक्रिया में होने वाली देरी के कारण रोककर नहीं रखा जाना चाहिए। इससे न सिर्फ विज्ञान के परिणामों तक त्वरित पहुंच सुनिश्चित होती है बल्कि वैज्ञानिकों को श्रेय भी मिल जाता है। जीनोम बायोलॉजी समय से काफी आगे था और यह प्रयोग असफल रहा। किंतु बायोआर्काइव के शुर होने के साथ पिछले दो वर्षों में प्रकाशन-पूर्व सर्वर के विचार को एक बार फिर समर्थन मिला है। यहां रोज़ाना दसियों शोध पत्र जमा किए जाते हैं और कई जीव वैज्ञानिकों के लिए यह वैज्ञानिक साहित्य खोजने का प्रमुख स्थान बन गया है।
जीव विज्ञान में प्रकाशन को लेकर रवैये बदले हैं और बदल रहे हैं। कई जीव वैज्ञानिकों का आज भी विश्वास है कि उच्च-प्रभाव वाले (जो विवादास्पद अंकगणित का खेल है) बहुविषयी जर्नल्स में प्रकाशन विज्ञान का उत्कर्ष है। कई अन्य इससे असहमत हैं और कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रयास का आकलन सिर्फ इस बात से नहीं किया जा सकता कि वह कहां प्रकाशित हुआ है। विज्ञान और उसके कर्मियों के प्रयासों का आकलन इस बात से होना चाहिए कि क्या रिपोर्ट किया गया है, चाहे वह एक सुगठित ‘वैज्ञानिक कहानी’ हो या सर्वथा नवीन विचार और अवलोकन हों जो शायद भविष्य में कभी महत्वपूर्ण हो जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)