अश्विन साई नारायण शेषशायी


कुछ न होने से तो शोध पत्रिका (जर्नल) की मध्यस्थता से होने वाली समकक्ष समीक्षा बेहतर है मगर इसमें बहुत समय ज़ाया होता है और यह सुसंगत भी नहीं होती। इसके अलावा, इस बात के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं कि इससे अच्छे विज्ञान के चयन में मदद मिलती है।

“वेसेलियस की शारीरिकी और कॉपरनिकस की कॉस्मोलॉजी (1543) के प्रकाशन की पहली सदी में विज्ञान को परिभाषित करने वाले मूल्य उभरे थे: मौलिकता, प्राथमिकता, प्रकाशन और...कटु आलोचना को सहने की क्षमता।”
“फ्रांकफुर्ट पुस्तक मेले (1564 से शुरू) ने पुस्तकों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दिया...अच्छे तथ्यों ने बुरे तथ्यों को खदेड़ दिया।”
“यदि किसी तरह का कोई प्रकाशन, या कम से कम संप्रेषण, नहीं है, तो पुनरावृत्ति संभव नहीं होगी।”
- डेविड वूटन, दी इंवेन्शन ऑफ साइन्स, 2016
विज्ञान - जिससे हम आज परिचित हैं - में तर्क और प्रयोगों के उपयोग से पारंपरिक ज्ञान की सिर्फ कमियों को पूरा नहीं किया जाता बल्कि उसे चुनौती दी जाती है, और नई-नई खोजें की जाती है, जो सत्य के तुल्य या सत्य के आसपास होती हैं। इसकी उत्पत्ति पुनर्जागरण काल के युरोप में देखी जा सकती है। कहने का मतलब यह नहीं है कि युरोपीय लोगों के अवलोकन व सैद्धांतिक योगदानों से पूर्व ऐसे प्रयास कभी हुए ही नहीं थे। कहने का आशय यह है कि इससे यह बात रेखांकित होती है कि कई कारकों, खास तौर से प्रिटिंग प्रेस के आविष्कार और उसके उत्पादों (यानी मुद्रित पुस्तकों) की युरोप में उपलब्धता, के मिले-जुले असर नेे विचारों के प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके चलते उनका अनुमोदन व आलोचना संभव हुए। इसने खोजों के एक ऐसे प्रवाह को जन्म दिया जिसने प्राय: बाइबली विवेक और अरस्तू के दर्शन का खंडन किया।

वैज्ञानिक प्रयोगों और खोजों के प्रकाशन का महत्व (जैसा कि डेविड वूटन के ऊपर उद्धरित पुस्तक में पहचाना गया है) गैलीलियो और थॉमस हैरियट द्वारा गिरती वस्तुओं का नियम खोजने के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। दोनों ही खगोल शास्त्री थे। हैरियट ने ‘अपने परिणामों को अपने तक ही रखा’। दूसरी ओर गैलीलियो ने अपने नतीजे 1632 में प्रकाशित कर दिए। यह परिवर्तनकारी साबित हुआ। अरस्तू का दर्शन कहता था कि भारी वस्तुएं हल्की वस्तुओं की अपेक्षा अधिक तेज़ी से गिरती हैं और गिरती हुई वस्तुओं की गति स्थिर रहती है। गैलीलियो के सिद्धांत ने इसका विरोध किया। गैलीलियो के सिद्धांत में कहा गया था कि गिरते समय वस्तुओं की गति बढ़ती जाती है (यानी उनमें त्वरण होता है) और एक चट्टान और एक पंख को यदि एक ही ऊंचाई से गिराया जाए, तो आदर्श परिस्थितियों में (यानी हवा के प्रतिरोध को हटाकर) वे धरती पर एक साथ गिरेंगे।

कई लोगों ने गैलीलियो के निष्कर्षों को प्रयोग के माध्यम से दोहराने की कोशिश की है (ऐसे प्रयोग करना आसान नहीं है) और पिछली सदियों में गुरुत्वाकर्षण को एक निर्णायक बल के रूप में पहचाना गया है जो इस ब्रह्मांड और हमारी दुनिया को अक्षुण्ण बनाए रखने में मदद करता है।
जीव विज्ञान में रॉबर्ट हुक ने अपनी पुस्तक माइक्रोग्राफिया (1665) प्रकाशित करके सूक्ष्मजीवी फफूंद के प्रथम अवलोकन रिपोर्ट किए थे। नेदरलैण्ड के लेंस-निर्माता एन्तोन फॉन ल्यूवेनहूक ने लंदन की रॉयल सोसायटी को 200 पत्रों की एक  ाृंखला में सूक्ष्म प्रोटिस्ट व बैक्टीरिया का विवरण दिया था (पहला पत्र 1673 में लिखा गया था)। प्रकाशन से पूर्व ल्यूवेनहूक ने अपने अवलोकन एक चिकित्सक रेनियर डी ग्राफ को दिखाए थे, जिन्होंने फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी (दुनिया का प्रथम वैज्ञानिक जर्नल) के संपादक को पत्र लिखकर ल्यूवेनहूक के सूक्ष्मदर्शी की तारीफ इन शब्दों में की थी: “ये उन सबसे बेहतर हैं जो हमने आज तक देखे हैं।” ये विवरण भुला दिए गए थे - इन्हें तो उन्नीसवीं सदी में उभरते कोशिका सिद्धांत के संदर्भ में फिर से खोजा गया। यही कोशिका सिद्धांत अधिकांश आधुनिक जीव विज्ञान के मूल में है।
विज्ञान सत्य को स्थापित करने का प्रयास करता है और इसका एक केंद्रीय तत्व पुनरावृत्ति है। किसी खोज की पुनरावृत्ति की कोशिश न सिर्फ उस खोज के लिए ज़िम्मेदार वैज्ञानिकों द्वारा की जाती है बल्कि उस खोज में रुचि रखने वाले कई अन्य वैज्ञानिक भी करते हैं। इस प्रथा का परिणाम या तो उस परिणाम की पुष्टि के रूप में सामने आता है या उसकी आलोचना के रूप में, और कभी-कभी तो किसी खोज को खारिज भी कर दिया जाता है। इस कवायद के लिए प्रकाशन निर्णायक हैं। प्रकाशन से न सिर्फ किसी विचार के तत्काल प्रसार में मदद मिलती है बल्कि ये घटनाओं के अमिट रिकॉर्ड के रूप में भी उपयोगी होते हैं। यह रिकॉर्ड मूल लेखकों के अवसान के वर्षों या सदियों बाद भी जीवित रहता है।

प्रकाशन की प्रक्रिया
आजकल जीव विज्ञान में शोध पत्र के प्रकाशन की प्रक्रिया क्या होती है? यह प्रक्रिया परिणामों को जीव वैज्ञानिकों और अन्य वैज्ञानिकों के समुदाय तक कैसे संप्रेषित करती है? आम साक्षर लोगों के लिए वैज्ञानिक परिणामों को समझने का क्या महत्व है?
जीव विज्ञान में किसी भी सम्माननीय प्रकाशन में निम्नलिखित तत्व होंगे। प्रयोगों की एक श्रृंखला या सैद्धांतिक अध्ययनों के आधार पर कोई नई खोज या परिणाम। इन प्रयोगों को लिखा जाता है जिसमें पहले इनके संदर्भ को स्पष्ट किया जाता है और फिर उनके परिणाम बताए जाते हैं और यह बताया जाता है कि मौजूदा साहित्य में उनका संभावित स्थान क्या है। अंत में यह अनुमान व्यक्त किया जाता है कि इन परिणामों से अंतत: कहां पहुंचने की उम्मीद की जाती है। हर व्यक्ति की लिखने की अपनी शैली होती है और इस बात का प्राय: सम्मान किया जाता है।

यह कोई अचरज की बात नहीं है कि पिछले दशकों में यह शैली काफी बदल गई है। उन्नीसवीं सदी में लिखी गई चार्ल्स डारविन की ओरिजिन ऑफ स्पिशीज़ एक वैज्ञानिक वृत्तांत की अलंकारपूर्ण शैली में लिखी गई पुस्तक है। मध्य बीसवीं सदी के क्लासिकल सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक साहित्य में एक अपेक्षाकृत विस्तारपूर्ण विवरण की शैली अपनाई जाती थी जो आजकल के स्नातक छात्रों को लुभाएगी (मगर दुर्भाग्य की बात है कि इसका उपयोग कॉलेजों में बहुत कम किया जाता है)। आधुनिक शोध पत्र सघन होते हैं जिनमें प्राय: ज़रूरत से ज़्यादा जानकारी ठूंस दी जाती है और पारिभाषिक शब्दों की भरमार होती है। मध्य-बीसवीं सदी के एक 30-40 पन्ने के शोध पत्र की अपेक्षा आजकल के एक 3-4 पन्ने के शोध पत्र को समझने में ज़्यादा समय लगेगा।
एक बार लिख लेने के बाद पांडुलिपि को नज़दीकी सहकर्मियों के पास टिप्पणियों के लिए भेजा जाता है। इन टिप्पणियों पर विचार करके उपयुक्त होने पर जोड़ लिया जाता है। इसके बाद पांडुलिपि को किसी जर्नल को विचारार्थ भेज दिया जाता है। जर्नल के एक-दो संपादक पहले यह देख लेते हैं कि उस शोध पत्र की विषयवस्तु जर्नल के दायरे में फिट बैठती है या नहीं। कुछ तथाकथित ‘उच्च प्रभाव वाले’ जर्नल इस बात का व्यक्तिनिष्ठ फैसला करते हैं कि क्या पांडुलिपि में जो परिणाम दिए गए हैं, वे ‘महत्वपूर्ण’ और ‘पर्याप्त व्यापक रुचि’ के हैं या नहीं। कई जर्नल व्यापारिक होते हैं और वहां महत्व और रुचि सम्बंधी ऐसे ‘संपादकीय निर्णय’ प्राय: विज्ञान की गुणवत्ता को लेकर नहीं बल्कि इस आधार पर होते हैं कि ऐसे शोध पत्रों को प्रकाशित किया जाए जो जर्नल की मार्केटिंग रणनीति से मेल खाते हों।
जो पांडुलिपियां उपरोक्त शर्तों को पूरा करती हैं, उन्हें उस विषय-क्षेत्र के कुछ विशेषज्ञों (रेफरियों) के पास भेजा जाता है। हर जर्नल और हर संपादक का अपना नज़रिया होता है कि किसी पांडुलिपि की समीक्षा कैसे की जानी चाहिए। रेफरियों का चुनाव इन्हीं आधारों पर किया जाता है। ये रेफरी आम तौर पर लेखक के लिए गुमनाम होते हैं। इनकी टिप्पणियों के आधार संपादक शोध पत्र के भविष्य के बारे में निर्णय लेते हैं।

बहुत बिरले मामलों में शोध पत्र को जस-का-तस स्वीकार कर लिया जाता है। कुछ अन्य शोध पत्रों में शायद भाषा को संशोधित करना पड़े या शायद रेफरियों द्वारा सुझाए गए नए प्रयोग करना पड़े। अन्य शोध पत्रों को नामंज़ूर कर दिया जाता है। हो सकता है कि इन्हें अन्य जर्नल्स को भेजा जाए और स्वीकार भी हो जाएं। इस प्रक्रिया को जर्नल की पहल पर समकक्ष समीक्षा कहते हैं। इसे पांडुलिपि की गुणवत्ता के आकलन की कसौटी माना जाता है। स्वीकार होने के बाद पांडुलिपि उत्पादन के चरण में पहुंच जाती है जिसमें उसे टाइप करना, प्रूफ रीडिंग करना और प्रकाशित करना शामिल हैं। इस चरण में समय लगता है - कभी-कभी पूरा साल लग जाता है।
इस तरह से शोध पत्र प्रकाशित करवाना वैज्ञानिक कैरियर के केंद्र में है। भारत में पीएच.डी. छात्रों को कम से कम एक शोध पत्र (जिसमें वे प्रथम लेखक हों) प्रकाशित करना होता है, उसके बाद ही उन्हें उपाधि की पात्रता होती है। पदोन्नति के समय भी अक्सर वैज्ञानिक का प्रकाशनों का रिकॉर्ड देखा जाता है। किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह प्रक्रिया स्वयं विज्ञान की प्रगति के लिए इतनी महत्वपूर्ण है और ऐसा क्यों किया जाना चाहिए।

पूर्वाग्रह-ग्रस्त समीक्षा
जर्नल की मध्यस्थता से संचालित समकक्ष समीक्षा के इस वर्तमान मॉडल को लेकर कई दलीलें हैं। इनमें से एक है कि रेफरियों का चयन बहुत सीमित समूह में से होता है और उनकी रिपोर्ट्स में सुसंगति नहीं होती। अक्सर एक पांडुलिपि को दो-तीन रेफरी देखते हैं। क्या उनका फैसला उस शोध का ठीक-ठाक आकलन होगा? एक हद तक तो यह ठीक है - जब तक रेफरी की रिपोर्ट्स में आपस में सहमति हो। ऐसे में रेफरियों की रिपोर्ट के आधार पर संपादकीय आकलन उचित कहा जा सकता है। मगर मामला इतना सीधा-सरल नहीं होता। कई बार रेफरियों की रिपोर्ट्स एक दूसरे के विपरीत होती हैं और तब उस शोध पत्र को प्रकाशित करने का निर्णय संपादक को ही करना पड़ता है (जैसे क्रिकेट में डीआरएस व्यवस्था है)। इस मामले में इस बात से बहुत फर्क पड़ता है कि संपादक की नज़र में एक वैध शोध पत्र क्या होता है।
इस मामले में जिस लेख का नज़रिया संपादक के नज़रिए से भिन्न हो, उसकी तो शामत है। यहां मेरे अपने एक शोध पत्र पर दो रेफरियों की रिपोर्ट के अंश दे रहा हूं:
रेफरी 1: “शोध पत्र निहायत अच्छी तरह लिखा गया है, जिसके आंकड़े भी बढ़िया हैं और तर्क भी अकाट्य हैं। मेरी सिफारिश है कि इसे बगैर किसी परिवर्तन के प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया जाए।’

रेफरी 2: “पांडुलिपि में न सिर्फ सहायक आंकड़ों का अभाव है बल्कि इसमें ज़रूरी कंट्रोल्स भी नहीं हैं। वर्तमान रूप में यह जर्नल ज्र्ज्र् के लिए उपयुक्त नहीं है, जिसमें तकनीकी रूप से साफ-सुथरे प्रयोगों के साथ-साथ दावों को पुष्ट करने के लिए अतिरिक्त कामकाजी आंकड़ों की ज़रूरत होती है।”
संपादक के दिमाग में चल रहे टकराव की कल्पना कीजिए जब उसने वह प्रक्रिया शु डिग्री की हो जिसके आधार पर उस शोध पत्र को प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया था। और यह उदाहरण अपनी तरह का अकेला नहीं है।
समकक्ष-समीक्षा हमेशा पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होती। किसी लेखक की संस्थागत सम्बद्धता इस बात पर निर्णायक असर डालती है कि उसके शोध पत्र का प्रकाशन होगा या नहीं। उदाहरण के लिए, रिचर्ड स्मिथ (ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के एक पूर्व संपादक) ने समकक्ष-समीक्षा पर अपने एक पर्चे में एक अध्ययन को उद्धरित किया था। इस अध्ययन में मनोविज्ञान के प्रतिष्ठित जर्नल्स में प्रकाशित 12 शोध पत्रों पर विचार किया गया था। इनके लेखक विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों से थे। इस अध्ययन के तहत वही शोध पत्र छिटपुट परिवर्तनों के साथ उन्हीं जर्नल्स में भेजे गए थे और लेखकों की संस्थागत सम्बद्धता बदल दी गई थी। जैसे किसी लेखक को ‘ट्राइ वैली सेंटर फॉर ह्यूमैन पोटेंशियल’ से सम्बद्ध बताया गया था।

उपरोक्त 12 में से 9 शोध पत्रों के बारे में जर्नल यह नहीं पहचान पाए थे कि वे उन्हें पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। और इन 9 में से 8 को तकनीकी आधारों पर अस्वीकृत कर दिया गया। रिचर्ड स्मिथ बताते हैं कि वे स्वयं विज्ञान के एक महान दार्शनिक कार्ल पॉपर के एक शोध पत्र को खारिज करना चाहते थे, मगर कर नहीं पाए थे (क्योंकि) “नाम की ताकत बहुत ज़्यादा थी।” गनीमत रही कि इस मामले में शुरुआती सहज बोध गलत था।
इससे भी ज़्यादा महत्व की बात यह है कि उक्त प्रक्रिया में समय बहुत लगता है। लेखकों, संपादकों और समकक्ष-समीक्षकों के बीच ईमेल ने ज़रूर इस प्रक्रिया को तेज़ कर दिया है, किंतु फिर भी किसी शोध पत्र को किसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रस्तुत करने से लेकर प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने के बीच साल भर का समय लग सकता है। आजकल के दिनों में जब टेक्नॉलॉजी ने शोध कार्य को काफी गति प्रदान कर दी है, तब किसी महत्वपूर्ण पांडुलिपि का एक साल तक ठंडे बस्ते में पड़े रहना समय और पैसे की घोर बरबादी है। ऐसे विलंब किसी प्रतिभाशाली किंतु दुर्भाग्यशाली, समयसीमा से लड़ते हुए बेचारे पीएच.डी. छात्र का कैरियर तबाह कर सकते हैं।

और सबसे प्रमुख सवाल तो यह है कि क्या समकक्ष-समीक्षा खराब विज्ञान की छंटाई करने में समर्थ है? निश्चित रूप से यह ज़्यादा विश्वसनीय पठन सामग्री उपलब्ध कराती है। अलबत्ता, वेबसाइट Retraction Watch पर एक सरसरी नज़र डालने से भी पता चल जाता है कि कई सारे धोखाधड़ी वाले शोध पत्र या गलती से गलत शोध पत्र जर्नलों की इस समकक्ष-समीक्षा प्रक्रिया को पार कर गए। यह सूची उन शोध पत्रों का एक अंश मात्र है जो विज्ञान के आकलन की किसी पक्की व्यवस्था की उपस्थिति में कभी प्रकाशित न होते। एक व्यवस्थित अध्ययन में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने जानबूझकर पांडुलिपियों में गलतियां प्रविष्ट करा दीं और फिर इन्हें कई रेफरियों को भेजा गया। एक बार फिर रिचर्ड स्मिथ के शब्दों में, ‘किसी ने भी सारी गलतियां नहीं पकड़ीं।’
अर्थात जर्नल की मध्यस्थता से संचालित समकक्ष-समीक्षा कुछ नहीं होने से तो बेहतर हो सकती है किंतु इसमें समय बहुत लगता है, सुसंगति नहीं होती और इस बात के बहुत कम प्रमाण हैं कि इसने अच्छे विज्ञान को चुनने और खराब विज्ञान की छंटाई करने में कोई बड़ा योगदान दिया हो। बहरहाल, जब जर्नल्स पूर्णत: मुद्रित होते थे, और ग्राहकी के लिए होड़ करते थे, तब इसकी एक भूमिका थी किंतु आज शायद यह मुद्रण युग के अवशेष से ज़्यादा कुछ नहीं है। इस लेख के अगले भाग में नए युग के लिए नए मॉडल्स की बात करेंगे। (स्रोत फीचर्स)