डॉ. अश्विन साई नारायण शेषशायी

क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था उन छात्रों को स्टेम कोशिका के जीव विज्ञान में शोध करने के लिए तैयार कर सकती है जिन्होंने कंप्यूटर विज्ञान और संगीत में स्नातक उपाधि ली हो? करना तो चाहिए।
यह भारत सरकार के लिए गहमा-गहमी का वक्त है। इस सरकार ने परिवर्तन का वादा किया था। जहां आतंकी शिविरों के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक और अर्थ व्यवस्था बहस के केंद्र में हैं - कम से कम शब्दों में - वहीं शिक्षा में बदलाव और कौशल विकास की बातें मुख्य धारा विमर्श में से नदारद हो चुकी हैं। उदाहरण के लिए, एक नई शिक्षा नीति का निर्माण किया जा रहा है जिसके घोषित लक्ष्यों में सामाजिक सुधार शामिल है। इसमें शिक्षा को वहनीय बनाना और बालिका शिक्षा के अलावा ‘विश्व स्तरीय’ कामगार दल विकसित करना भी शामिल है।
हम यहां इस बारे में विचार नहीं करेंगे कि शिक्षा को समाज के सारे तबकों तक कैसे पहुंचाया जाए या कॉलेज में पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए सर्वोत्तम शिक्षा कैसी हो। हम यह बात करेंगे कि विज्ञान में सर्वोच्च स्तर के अकादमिक शोध में युवाओं से, अर्थात स्नातक उपाधि हासिल करने के बाद पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध में आने वाले विद्यार्थियों से क्या अपेक्षा होती है।

हाई स्कूल व कॉलेज के मूल्यांकन के लिए अकादमिक शोध सही मापदंड क्यों है? गहन अनुसंधान के लिए दो चीज़ें ज़रूरी होती हैं: (क) आलोचनात्मक और रचनात्मक ढंग से सोच पाना और (क) काम करवा पाना। संभवत: ये दो हुनर व्यापारिक क्षेत्र में भी सर्वोच्च स्तर पर ज़रूरी होंगे। इसलिए ऐसी शिक्षा प्रदान करना जो युवा मस्तिष्कों में इन दो आदतों का विकास कर पाए सिर्फ अकादमिक दृष्टि से ही ज़रूरी नहीं है। इतना कहने के बाद यह देखते हैं कि जीव विज्ञान जैसे बहु-विषयी क्षेत्र में अकादमिक शोध के मापदंड क्या हैं।
क्या हमें रचनात्मक सोच की ज़रूरत है/क्या हमें नवाचारों की ज़रूरत है? पिछली कुछ सदियों या शायद सहस्राब्दियों में मनुष्य के जेनेटिक विकास के मुकाबले सांस्कृतिक विकास का पलड़ा भारी रहा है। हमने अपनी दुनिया को इतनी तेज़ रफ्तार से बदला है कि अगले कुछ दशकों या आजकल के स्मार्टफोन के युग में शायद वर्षों और महीनों में हमारे बासी पड़ जाने का खतरा है। यह सब हुआ क्योंकि मानवजाति में नवाचार की ज़बरदस्त क्षमता है। दीर्घावधि में, और पीछे मुड़कर देखें तो शायद इस सबसे कुछ अच्छा हासिल नहीं हुआ होगा किंतु जो हो गया वह हो गया। सवाल है कि हम आगे कैसे बढ़ें।

संदर्भ सापेक्ष सत्य
हमें निर्जीव और जैविक विश्व के बीच अंतर्क्रियाओं के निहायत पेचीदा जाल को समझना होगा, तभी हम इस तंत्र में किसी भी गड़बड़ी के परिणामों की भविष्यवाणी कर पाएंगे। और गड़बड़ियां सघन रूप में और तेज़ गति से हो रही हैं। इनमें अर्थ व्यवस्था और वायुमंडल में बेतरतीब झटकों की भूमिका कम नहीं है। ये झटके हर किस्म के हैं और इस बात को पूरी तरह समझे बगैर दिए जा रहे हैं कि ये हमारा निर्वाह करने वाले नेटवर्क को किस तरह डांवाडोल करते हैं। हालांकि नियामक संस्थाओं का काम यह सुनिश्चित करना है कि इस तरह की गड़बड़ियां न्यूनतम रहें मगर वे तभी यह भूमिका निभाने की स्थिति में होंगी जब उनके पास पर्याप्त आंकड़े हों और भविष्यवाणी के कारगर औज़ार हों। यह बड़ी संख्या में किए गए शोध अध्ययनों से ही संभव होगा, और ये अध्ययन प्राय: अकादमिक प्रकृति के होंगे।
अकादमिक अनुसंधान का मकसद हमारी दुनिया और उससे बाहर नई चीज़ें खोजना और उनके बारे में जांचने योग्य भविष्यवाणियां करना होता है। इस प्रक्रिया में इस बात के मापदंड तय किए जाते हैं कि वैध खोज किसे कहा जाएगा। सामान्यत: एक परिकल्पना बनाई जाती है, और उसका खंडन करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। परिकल्पना तब तक टिकी रहती है जब तक कि उसका खंडन नहीं हो जाता। परिकल्पना की परख प्राय: सिर्फ प्रयोग के चुनाव से नहीं बल्कि इस बात से तय होती है कि वह प्रयोग कितने अच्छे से किया गया। अन्यथा कोई बेढंगा प्रयोगकर्ता तो प्रयोग करके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का भी खंडन कर देगा। अर्थात, एक शोधकर्ता के लिए बुनियादी शर्त यह है कि वह किसी परिकल्पना की जांच के लिए सही प्रयोग डिज़ाइन करके उसे ठीक से अंजाम दे सके। आप इन कामों को कितने अच्छे से कर सकेंगे, यह काफी हद तक आपके शुरुआती प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

जब कोई परिकल्पना खंडित हो जाती है, तब भी हम उससे जुड़ी हर चीज़ को कूड़े में नहीं फेंक देते। ऐसा अक्सर होता है कि कोई परिकल्पना सार्वभौमिक स्तर पर सही नहीं होती किंतु कुछ संदर्भों में सही होती है। किसी काल्पनिक दवा का उदाहरण लीजिए जो किसी ऐसी बीमारी के इलाज में काम आती है जिसका प्रकोप काफी ज़्यादा होता है। यह दवा गहन क्लीनिकल परीक्षणों से गुज़रती है जिनमें कई सांख्यिकीय नियंत्रण स्थापित किए जाते हैं। इस प्रक्रिया में से यह दवा कामयाब होकर निकलती है। तब यह नियमित चिकित्सा का अंग बन जाती है और ज़बरदस्त ढंग से कामयाब रहती है जब तक कि कुछ ऐसे मरीज़ सामने नहीं आते जिनका उपचार करने में यह नाकाम रहती है।

परिकल्पना की परख प्राय: सिर्फ प्रयोग के चुनाव से नहीं बल्कि इस बात से तय होती है कि वह प्रयोग कितने अच्छे से किया गया। अन्यथा कोई बेढंगा प्रयोगकर्ता तो प्रयोग करके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का भी खंडन कर देगा।

अब यह सिद्धांत सार्वभौमिक नहीं रह जाता कि उक्त दवा उस बीमारी का इलाज कर देगी। किंतु क्या हमें उस दवा को खारिज कर देना चाहिए? शायद नहीं। हो सकता है कि चिकित्सा शोधकर्ता मिलकर यह खोज करें कि जिन मरीज़ों के लिए वह दवा नाकाम रहती है उन सबमें कोई ऐसी सामान्य बात है जो खून की जांच से पता चलती है। अकादमिक शोधकर्ता शायद और आगे जाकर यह दर्शा पाएं कि इन व्यक्तियों में कोई जेनेटिक उत्परिवर्तन उपस्थित है जो शरीर में इस दवा के चयापचय को प्रभावित करता है।
परिकल्पनाओं की संदर्भ-सापेक्ष सत्यता की यह धारणा वैज्ञानिक अनुसंधान की व्याख्या को और भी मुश्किल बना देती है। इसके चलते शोधकर्ता में आलोचनात्मक सोच की ज़रूरत होती है। यह क्षमता भी शुरुआती बचपन में ही विकसित की जा सकती है।

हमारे सांस्कृतिक विकास की तेज़ रफ्तार ने हमें जानकारी जुटाने के लिहाज़ से एक अनोखी स्थिति में ला खड़ा किया है। इंटरनेट विशाल है, आजकल के 140 अक्षरों के प्रेम के कारण इसमें गहराई कम है, फैलाव ज़्यादा है। किंतु जो लोग तलाश करते हैं, उनके लिए इसमें गहराई भी है और इसे एक अच्छी बात माना जाता है। अलबत्ता, मन में कई बार संदेह होता है कि जानकारी तक आसान पहुंच क्या एक अच्छी चीज़ है। मसलन, क्या यह रचनात्मक सोच को कुंद कर सकती है?
आज जब कोई बच्चा एक तथ्य सीखता है और उसके पीछे का ‘क्यों’ जानने को उत्सुक होता है, तो उसके लिए इंटरनेट पर जाकर उत्तर पाना बहुत आसान होता है - बजाय इसके कि वह समस्या के हल के संभावित मार्गों के बारे में सोचने की प्रक्रिया से गुज़रे और पुस्तकालय से जवाब के बारे में सुराग खोजे और अंतत: तय करे कि क्या उसका जवाब सही है। जानकारी की भरमार के इस युग में या तो बच्चा संत हो या वह सवाल विज्ञान के एकदम अग्रणी क्षेत्र से सम्बंधित हो, तभी बच्चे के लिए पुरानी शैली का सोचना और बुदबुदाना उस सवाल की गुत्थी को सुलझाने के लिए ज़रूरी होगा। मगर बच्चे संत नहीं हैं और हमेशा अग्रणी क्षेत्रों में काम नहीं करते। हमारे शिक्षाविद इस समस्या के बारे में क्या सोचते हैं और इसके बारे में क्या करना चाहते है? इस सवाल का जवाब महत्वपूर्ण है।

विलंब की सराहना
इंटरनेट और डिजिटलीकरण का जाल सिर्फ सूचनाओं के प्रसार तक सीमित नहीं है। यह तो और आगे जाकर हमारे लिए सारे काम कर देना चाहता है। जीव विज्ञान में ऐसे कई रेडीमेड, आसान सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो हमें कई काम तेज़ी से करने में मदद करते हैं। इनकी लोकप्रियता का प्रभाव यह हुआ है कि हमने स्नातक छात्रों की एक पीढ़ी तैयार की है जो सॉफ्टवेयर को चलाने वाला कोई बटन दबाने या कोई निर्देश टाइप करने में दक्ष है मगर उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि सॉफ्टवेयर जो गणनाएं करता है उसकी विधि क्या है अथवा उसके पीछे मान्यताएं क्या हैं। उदाहरण के लिए, एक सॉफ्टवेयर उपलब्ध है जो यह भविष्यवाणी कर सकता है कि क्या कोई औषधि किसी प्रोटीन से जुड़ेगी और कहां जुड़ेगी। किंतु इस भविष्यवाणी के लिए कुछ मान्यताएं ली जाती हैं जिनसे इस भविष्यवाणी को सरल बनाने में मदद मिलती है। हमारे देश के बायोइंफॉर्मेटिक्स के कई छात्र ऐसे औज़ारों का उपयोग करते हैं किंतु उनके पास ऐसी आणविक अंतर्क्रियाओं का निर्धारण करने वाले भौतिक बलों की समझ का अभाव होता है। कहना न होगा कि आंख मूंदकर ऐसे सॉफ्टवेयर का उपयोग करने से साफ-सुथरे निष्कर्ष निकल सकते हैं जो शायद सही न हों। यह बहुत महंगा पड़ सकता है।

आज जब कोई बच्चा एक तथ्य सीखता है और उसके पीछे का ‘क्यों’ जानने को उत्सुक होता है, तो उसके लिए इंटरनेट पर जाकर उत्तर पाना बहुत आसान होता है - बजाय इसके कि वह समस्या के हल के संभावित मार्गों के बारे में सोचने की प्रक्रिया से गुज़रे और पुस्तकालय से जवाब के बारे में सुराग खोजे और अंतत: तय करे कि क्या उसका जवाब सही है।

अंतत:, हमारी शिक्षा प्रणाली देर से उभरने वाले या विषय बदलने वालों को नापसंद करती है। जैसे, यदि किसी प्रतिभावान छात्र ने अर्थ शास्त्र में बी.ए. किया है और वह, पश्चिमी देशों की यात्रा किए बगैर, रसायन शास्त्र में प्रवेश करना चाहे, तो इसकी कितनी गुंजाइश है? बहुत कम। अक्सर, 17-18 वर्षीय छात्र द्वारा, तमाम सामाजिक दबाव झेल रहे अपने पालकों की संगत में, चुने गए प्रथम स्नातक विषय पत्थर की लकीर बन जाते हैं। यह बहुत बुरी बात है।
विज्ञान को अक्सर मानविकी से लाभ मिलता है: हमारे जीवन में विज्ञान के स्थान व भूमिका से सम्बंधित सवालों के जवाब प्राय: इतिहास और दर्शन शास्त्र से मिलते हैं। इन विषयों की नासमझी किसी कामकाजी वैज्ञानिक के लिए लाभदायक कम, हानिकारक ही ज़्यादा हो सकती है। जहां तक मेरी जानकारी है, बहुत थोड़े-से ‘क्रीमी लेयर’ संस्थान ही विज्ञान के पाठ्यक्रम में मानविकी की शिक्षा को शामिल करते हैं। किंतु इस मानविकी शिक्षा की प्रथा का ‘क्रीमी लेयर’ में सीमित रहना एक बड़ी खामी है क्योंकि इन उत्कृष्ट संस्थानों में प्रवेश निहायत मुश्किल होता है।
मैं एक अद्भुत अमरीकी वैज्ञानिक को जानता हूं, जिन्होंने मेरी पीएच.डी. की अवधि में मुझे कई बातें सिखाई थीं। वे आजकल स्टेम कोशिका के क्षेत्र में अग्रणी सवालों पर शोध कार्य कर रहे हैं। इससे पहले उन्होंने संगीत और कंप्यूटर विज्ञान में उपाधि हासिल की थी। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे छात्रों को ऐसा करने में सक्षम बना सकती है? ऐसा हुआ तो यह एक बड़ा बदलाव होगा, स्वागत योग्य बदलाव। (स्रोत फीचर्स)