विनता विश्वनाथन

कुछ माह पूर्व उत्तराखंड हाई कोर्ट ने घोषित किया कि गंगा और यमुना जीवित हस्तियां हैं। हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है, “गंगा व यमुना नदियों, उनकी सारी सहायक नदियों और नालों, तथा उनमें लगातार या रुक-रुककर बहने वाले समस्त प्राकृतिक जल को एक न्यायिक/कानूनी व्यक्ति/जीवित हस्ती घोषित किया जाता है। जिनके सारे अधिकार, कर्तव्य और दायित्व किसी भी कानूनी व्यक्ति के समान होंगे ताकि गंगा व यमुना को संरक्षित किया जा सके।” इसका मतलब है कि अब इन्हें कानूनी मानव अधिकार हासिल होंगे। हां, इतना अवश्य है कि ये अवयस्क माने जाएंगे। इसलिए दोनों नदियों के लिए एक-एक मनुष्य यानी प्रतिनिधि (अभिभावक) नियुक्त किया गया है।
दुनिया में ऐसी हैसियत हासिल करने वाली ये पहली नदियां नहीं हैं। उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले से कुछ ही दिन पहले न्यूज़ीलैण्ड की एक अदालत ने व्हांगनुई नदी को जीवित हस्ती घोषित किया था। न्यूज़ीलैण्ड अदालत का यह फैसला माओरी जनजाति के 140 वर्षों के संघर्ष के बाद आया था। माओरी इस नदी को अपना पूर्वज मानते हैं और स्वयं को पहाड़ों, नदियों और भूमि का एक हिस्सा मानते हैं। अदालत ने माओरी लोगों को कुछ धनराशि भी उपलब्ध कराई है ताकि वे इस नदी की सेहत में सुधार ला सकें।

उत्तराखंड अदालत का 20 मार्च 2017 का आदेश किसी याचिका या किसी समूह द्वारा ऐसे निवेदन के जवाब में नहीं आया है। दरअसल अदालत ने यमुना के तट पर रेत खनन, पत्थर तोड़ने और अतिक्रमण से सम्बंधित एक याचिका पर विचार करते हुए ऐसे लोगों को वहां से हटाने के आदेश दिए थे। सरकारी अधिकारियों ने इस संदर्भ में कुछ नहीं किया था और याचिकाकर्ता ने यह समस्या अदालत के समक्ष प्रस्तुत की थी।
इसके जवाब में अदालत ने ‘जीवित हस्ती’ वाला फैसला सुनाया। अपने फैसले के कारणों में अदालत ने कहा कि ये हिंदुओं के लिए पवित्र नदियां हैं और यह भी कहा कि ये (नदियां) “सांस लेती हैं, जीवित हैं और पर्वतों से समुद्र तक समुदायों का निर्वाह करती हैं।” आदेश का मकसद नदियों को पहले से अधिक कानूनी सुरक्षा प्रदान करना है।

इस फैसले में कई दिक्कतें नज़र आती हैं। सबसे पहली दिक्कत तो इस कथन से है कि कोई भी नदी जीवित हस्ती होती है; यह सही नहीं है। नदियां जटिल निर्जीव तंत्र हैं जिनमें स्रोत से लेकर मुहाने तक विविध प्राकृवास होते हैं। निश्चित रूप से वे बेशुमार सजीवों को सहारा देती हैं किंतु वे स्वयं सांस नहीं लेतीं, ना ही वे जीती हैं। किसी पूजनीय चीज़ को जीवित घोषित करना कथा-कहानियों और गीतों-कविताओं के दायरे में आता है, व्यावहारिक यथार्थ के दायरे में नहीं।
दूसरी दिक्कत थोड़ी अलग किस्म की है - फैसले का एक निहितार्थ यह है कि पवित्र नदियों को ज़्यादा सुरक्षा की ज़रूरत है क्योंकि वे पवित्र हैं; उनमें हो रहे प्रदूषण, खनन गतिविधियां व अन्य नुकसान सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं हैं। विडंबना यह है कि कई बार नदियों को उन लोगों से सुरक्षा की ज़रूरत होती है जो उनकी पूजा करते हैं। वे लोग इन पवित्र नदियों में तरह-तरह की चीज़ें विसर्जित करते रहते हैं। यह बात गंगा के मामले में यकीनन सही है, जैसा कि बीआरपी भास्कर ने दी आउटलुक में बताया है।

एक सवाल यह है कि अदालतें देश की शेष नदियों के साथ क्या व्यवहार करने की योजना रखती हैं? और तालाबों, झीलों जैसी जलराशियों के बारे में क्या योजना है? ज़ाहिर है, अधिक सुरक्षा उपलब्ध कराने का निर्णय किसी नदी में हो रहे प्रदूषण व अन्य क्षतियों के आधार पर किया जाना चाहिए, पवित्रता के आधार पर नहीं। और सबसे अहम मुद्दा तो यह है कि हो सकता है कि मनुष्य माना जाना किसी नदी को ज़्यादा सुरक्षा प्रदान करेगा किंतु यह मानने का कोई कारण नहीं है कि नदियों को इस वक्त भी पर्याप्त कानूनी सुरक्षा हासिल नहीं है। जैसे कि उत्तराखंड हाई कोर्ट में इस प्रकरण से पता चलता है, समस्या कानून का अभाव नहीं है, बल्कि यह है कि सरकारी अधिकारी व अन्य लोग नदियों को बचाने में अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं।
ऐसे फैसले के परिणामों का विश्लेषण करने और इसके प्रभावों को समझने या इस फैसले पर उन राज्यों की प्रतिक्रिया जानने जहां से होकर गंगा व यमुना बहती हैं, का इन्तज़ार करने की बजाय यह देखना चाहिए कि इसका उन लोगों पर क्या असर होगा जो अपनी जीविका के लिए इन नदियों पर निर्भर हैं। क्या अब ऐसा होगा कि उन्हें उस नुकसान के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा, जो उनकी गतिविधियों की वजह से अन्य लोगों को उठाने पड़ते हैं। क्या कुछ मामलों में उन्हें अपराधी मान लिया जाएगा? यहां गौरतलब है कि केंद्रीय गृह मंत्री के आग्रह पर मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ने नर्मदा को भी जीवित हस्ती घोषित कर दिया है।
निसंदेह, नदियों की रक्षा करना हमारा दायित्व है किंतु यह काम प्रभावी ढंग से और ऐसे कानूनों की मदद से करना होगा जिन्हें सारे राज्यों में और सरहदों के पार लागू किया जा सके। इस कार्रवाई में उन सारे मनुष्यों व अन्य जीवों को भी सहारा मिलना चाहिए जो इन नदियों पर आश्रित हैं। अदालत के उपरोक्त जज़्बाती आदेश प्रशंसनीय हैं किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि नदियों के लिए इनका क्या अर्थ है। इंसानों के साथ सलूक करने का हमारा रिकॉर्ड कोई खास अच्छा नहीं रहा है, पता नहीं हम इन ‘घोषित’ इंसानों के साथ क्या और कैसा सलूक करेंगे? (स्रोत फीचर्स)